दिव्य विचार: प्रतिकूलता में भी मन खराब न करें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि रोज घरों में महाभारत क्यों छिड़ता है? इसी कारण से। वाणी के असंयम के कारण, एक दूसरे के वचनों को बरदाश्त न करने के कारण। बड़ी समस्या बन जाती है। मैं आपसे कह रहा हूँ छोटी सी तपस्या कर लो, सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी। बोलो समाधान का नुस्खा जँचा कि नहीं जँचा? अच्छा लगा हो तो एक बार ताली तो बजा दो (तालियों की गड़गड़ाहट)। अरे! इतनी बड़ी समस्या का समाधान बता दिया और तुम्हारी कोई प्रतिक्रिया ही नहीं। अरे! हमसे संवाद तो जुड़ा रहना चाहिए। महाराज ! हम तो सुनते हैं जितनी देर आप सुना दो, यहाँ से जाने के बाद सब मामला साफ। वाणी के कुछ नहीं लगना है खा-पीकर तपस्या करना है। मन का संयम। मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता - इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप है।
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥
मन को प्रसन्न रखना, मन को खिन्न नहीं होने देना। कितनी ही प्रतिकूलता आए, मन में समता। अनुकूल संयोग न रहें, मन में समता रख सकते हैं आप? कुछ भी प्रतिकूल हो, दस मिनट आपका पंखा बन्द हो जाए, बरदाश्त कर पाते हो? यहाँ तो कर लेते हैं, घर में नहीं होता। प्रतिकूल संयोग को सहन करो। कैसे? तत्त्वज्ञान के माध्यम से। क्या भावना रखो? क्या धारणा रखो ? संसार के सारे संयोग मेरे अधीन नहीं, मेरे कर्मों के अधीन हैं। ये हकीकत है कि नहीं बोलो ? तुम्हारी तिजोरी की चाबी तुम्हारे पास है पर तुम्हारी किस्मत की चाबी तुम्हारे पास नहीं है, कब खुलेगा और कब बन्द होगा तुम्हें कुछ पता नहीं। किस्मत कब खुलेगी और कब बन्द हो जाएगी पता नहीं। कब तुम्हारे साथ अनुकूल संयोग घटेंगे और कब प्रतिकूल संयोग बन जाएँगे; तुम्हें इसका कोई पता नहीं। ये सच्चाई है जीवन की। तो फिर परेशान क्यों होते हो?