दिव्य विचार: वृद्धावस्था में चिंताएं ज्यादा होती है-:मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: वृद्धावस्था में चिंताएं ज्यादा होती है-:मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि घर में तुम्हारे पास एक नई पुस्तक हो उसके पन्ने पलटते समय तुम बहुत आसानी से पलट लेते हो पर कोई जीर्ण-शीर्ण महत्त्वपूर्ण पुस्तक तुम्हारे हाथ में आती है और उसको पढ़ना चाहते हो तो क्या करते हो? उसे सहेज कर रखते हो, उसके एक एक पन्ने को सावधानी पूर्वक पलटते हो; पुरानी चीजों के प्रति तुम्हारे मन में सावधानी है, तो पुरानी पड़ती जिंदगी के प्रति तुम्हारी क्या सावधानी है? तुम्हें केवल इसका विचार करना है। मेरा जीवन जीर्ण हो रहा है, इसके प्रति में कितना सावधान हूँ और बुढ़ापा आने के बाद भी मेरी जीवन चर्या में कोई परिवर्तन नहीं आया तो अंततः मैं जिंदगी से हार जाऊँगा मेरा बुढ़ापा ही मेरी जिंदगी के लिये बोझ बन जाएगा। विकार हावी नहीं हों, चार प्रकार के विकार हमारे मन में वृद्धावस्था में बहुत तेजी से पनपते हैं एक तृष्णा ज्यादा दूसरा अधिक बकवास करने की आदत, बड़बड़ाने की आदत, बकबक करने की आदत अधिक बोलने की प्रवृत्ति जैसे-जैसे बुढ़ापा आता है व्यक्ति उतना ज्यादा बोलना शुरु कर देता है, फिर अपना सिर धुनता है, बोलते-बोलते जब कोई सुनता नहीं; भइया, ज्यादा बोलने की जरूरत क्या हैं? उतना ही बोलो जितना सार है, ये तुम्हारी एनर्जी को नष्ट करेगा। तीसरी दुर्बलता है, चिंता । बुढापे में चिन्ता मनुष्य के सिर पर ज्यादा होती है और फालतू की चिंता, जिसका कोई लेना देना नहीं है। पर तृष्णा आसक्ति मनुष्य को चिंतातुर करती है। बुढ़ापे में एक चौथी कमजोरी आती हैं वह है अधीरता पेशन्स बिल्कुल नहीं होता । आप लोग मारवाड़ी में क्या बोलते? थावस नहीं होती, धैर्य नहीं होता। इन चारों विकारों से अपने आप को बचाना है। जीवन का मकसद क्या है? अब मैं उम्र के चौथे पन में आ गया, अब मेरा जीवन जीर्ण हो गया, जिंदगी पुरानी हो गई हैं, तो इस पुरानी जिंदगी को मुझे ढंग से जीना हैं, बड़े सावधानी से इसका प्रयोग करना है, जो पुरानी होती हैं और दुनिया में देखे तो हर चीज जितनी ऐन्टिक होती हैं उसकी उतनी वेल्यु होती है।