दिव्य विचार: ज्ञानी एवं अज्ञानी के जीने में अंतर होता है - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि एक ज्ञानी भी संसार में जीता है, अज्ञानी भी उसी संसार में जीता है। दोनों के जीने के तरीके में अन्तर होता है, परिस्थिति बाहर से एक दिखाई देती है, लेकिन फिर भी दोनों के जीवन जीने के तरीके में अन्तर स्पष्ट ही होता है । अज्ञानी संसार में रहते हुए अपने भीतर भी संसार को बसाए रखता है। लेकिन ज्ञानी संसार में जीता जरूर है पर अपने भीतर संसार को नहीं बसाता है। ज्ञानी का आदर्श अध्यात्म होता है, वह संसार की वास्तविकता को देखता है, ज्ञानी संसार में आसक्त नहीं होता, वह मानता है कि संसार में ये जो चीजें हैं वह अशाश्वत हैं, क्षणिक हैं, टिकाऊ नहीं हैं। अज्ञानी उन्हीं में मूढ़ हो जाता है और दुःख पाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने बहुत सुन्दर उदाहरण दिया है, उन्होंने ज्ञानी और अज्ञानी की क्या परिणति होती इसे समझाते हुए यह उदाहरण दिया है - कीचड़ में यदि लोहे को डाला जाये तो वह जंग खा जाता है परन्तु कीचड़ में यदि सोना डाला जाये तो वह कीचड़ में रहता तो है, पर अपने ऊपर कीचड़ को प्रभावित नहीं होने देता। अज्ञानी की स्थिति लोहे के समान है, जो संसार में रहता है और अपने ऊपर जंग लगा लेता है, परन्तु ज्ञानी सोने के समान है, जो संसार में रहता है पर अपने ऊपर जंग नहीं लगने देता है। उसका जीवन किंचित् भी विकृत नहीं होता है। संत कहते हैं - ज्ञानी बनो, सोने की तरह अपनी वृत्ति बनाओ, सबके बीच रहकर भी सबसे अलिप्त रहने की कला सीख लो, तब तुम्हारा सारा दुःख, तब तुम्हारा सारा द्वन्द्व स्वयमेव शान्त हो जायेगा। फिर तुम्हें ज्यादा उपदेश देने की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी । तुम्हारी यह जिंदगी जो बोझ बन गयी है वह आनन्द की यात्रा बन जायेगी। यदि इस कला को आत्मसात् नहीं कर पाते हो तो अपने जीवन को बोझिल होने से मुक्त नहीं कर सकते । बन्धुओ ! हम संसार की वास्तविकता को समझें और इस बोझ बने जीवन को कुछ हल्का करें, ताकि अपना जीवन सुखी बन सकें। आगे बढ़कर अध्यात्म को समझें जो हमारे जीवन को सुखी बनाता है।