दिव्य विचार::जितना है, जैसा है उसे स्वीकारो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि किसी का पति अनुकूल नहीं, किसी की पत्नि अनुकूल नहीं है, किसी का बेटा अनुकूल नहीं। ये सब सोचते हैं कि इनकी अनुकूलता हो जाये तो मैं सुखी हो जाऊँ। ठीक है। अच्छे रास्ते की चाह करना अलग बात है, लेकिन इसी को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेना अलग बात है। तुम सोचते हो कि इन तमाम अभावों को पूरा करने के बाद मैं सुखी हो जाऊँगा तो यह कतई संभव नहीं है। क्योंकि जो व्यक्ति अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं है, वह भविष्य में कभी संतुष्ट नहीं हो सकता । जो जितना, जैसा है, उसे तुम स्वीकारो। संसारभावना कहती है तुम अपने थोड़े से दुःख को देखकर व्याकुल हो जाते हो। यदि तुम संसार में अपनी दृष्टि को घुमाओगे तो देखोगे कि मेरा दुःख तो कुछ भी नहीं, संसार में तो इससे भी ज्यादा दुःख अभी है। दुःख भोगना तो संसार की अनिवार्यता है। हँस के भोगना चाहो या रो के, भोगना ज़रूर होगा। हँसने से दुःख आधा होता है और रोने से दुःख दुगुना होता है। इसलिये संत कहते हैं -हर स्थिति में मुस्कुराते हुये जियो। संसार भावना का मूल उद्देश्य भी यही है, कि संसार की असारता को पहचानो, यही मानकर चलो कि जो मेरी तकदीर में होगा वही मुझे मिलेगा और मुझे संतोष रखकर जीने में ही शान्ति है। इसके अलावा दूसरा कोई मार्ग नहीं है। संसार में सुख चाहने का मतलब तो कुल इतना ही है जैसे आग में शीतलता तलाश करना। क्या यह संभव है ? नहीं, नहीं अग्नि में शीतलता आज तक नहीं मिली। ऐसे ही संसार में आज तक सुख मिला। सांसारिक अपेक्षा जब तक जिंदा है, तब तक सुख नहीं मिल सकता। सुख केवल उसको मिल सकता है जो सांसारिक अपेक्षाओं से मुक्त हो जाता है। आप कहते हो - महाराज ! संसार में सुख नहीं है, तो संसार से भाग जाऊँ ? भागकर कहाँ जाओगे ? रहना तो तुम्हें संसार में ही पड़ेगा। बाहर के संसार से तुम फिर भी भाग जाओगे, पर भीतर के संसार से कैसे भागोगे ? वह तो तुम्हारे पीछे ही लगा रहेगा।