दिव्य विचार: दूसरो को नहीं, स्वंय को देखो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि उन अभावों को पूरा करने के पीछे तुम्हारी जिंदगी का अभाव हो जायेगा, लेकिन तुम्हारे अभावों का अभाव कभी नहीं होगा। इसलिये क्या करें ? प्रभाव से पीड़ित न हों, अभाव से प्रभावित न हों। अपने आपको बचाकर रखो। यह मानकर चलो, जो है, जैसा है, वही मेरा है। दूसरे को नहीं स्वयं को देखो। जब तुम दूसरों की ओर देखते हो तो तुम्हारा दुःख गहरा होने लगता है। जब तुम स्वयं को देखते हो तो उसी क्षण से तुम्हारा दुःख हल्का होने लगता है। संसार की वास्तविकता को जो व्यक्ति समझ लेता है उसकी सारी अपेक्षाएँ शान्त हो जाती है। जहाँ अपेक्षा शान्त हो जाती है वहाँ उपेक्षा नहीं होती। अपेक्षा होगी तो वहाँ उपेक्षा होगी। संत कहते हैं यह सारी सांसारिक अपेक्षायें अर्थहीन हैं। किसी व्यक्ति से किसी वस्तु से, कुछ भी चाह करोगे तो सिवाय दाह के कुछ भी नहीं मिलेगा। इस चाह से मुक्त होकर जीना ही जीवन की सच्ची राह है। चाह को खत्म करो। जो जितना जैसा है, उसे स्वीकार करने की बुद्धि जाग्रत कर लो। सब कुछ प्राप्त हो जायेगा। थोड़ा-थोड़ा दुःख सबको है, तो फिर मैं इससे सुख पाने की चाह क्यों रखूँ ? जहाँ से सुख मिल ही नहीं सकता, वहाँ से सुख पाने की चाह अज्ञानता नहीं तो और क्या है ? वस्तुतः कितनी भी अनुकूलता हो जाये, सुख नहीं मिलता। सुख का मूल अनुकूलता नहीं मन की संकल्पना है। जब तक हमारा चित्त अज्ञान से प्रभावित रहता है, हम बाहरी संयोगों की अनुकूलता में सुख तलाशते हैं। हमें लगता है, मेरे जीवन में इस चीज की कमी है, इसे दूर करके मैं सुखी हो जाऊँगा। एक निर्धन व्यक्ति यह सोचता है कि मैं थोड़ा-थोड़ा धन जुटा लूँगा तो मुझे सुख मिल जायेगा। जिसके पास रहने के लिये मकान नहीं है, वह सोचता है कि मेरा मकान हो जायेगा तो मैं सुखी हो जाऊँगा। जिस व्यक्ति का स्वास्थ्य अनुकूल नहीं है वह सोचता है कि मेरे स्वास्थ्य की अनुकूलता आ जाये तो मैं सुखी हो जाऊँगा। जिस व्यक्ति का परिवार अनुकूल नहीं है वह सोचता है कि मेरे परिवार की अनुकूलता आ जाये तो मैं सुखी हो जाऊँगा।