दिव्य विचार: जीवन में अध्यात्म को आत्मसात करें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: जीवन में अध्यात्म को आत्मसात करें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि वस्तुतः यश हमारे आचरण से अपने आप फैलता है। यश की आकांक्षा जीवन में बहुत अधिक दुःख उत्पन्न करती है। इसलिये बहुत ज्यादा यशाकांक्षी न बनें। बहुत ज्यादा महत्त्त्वाकांक्षी न बने क्योंकि यह आकांक्षायें भी बहुत दुःखदायी होती हैं। यह ताज पहनने को जो लोग लालायित हो जाते हैं उनको पता नहीं लगता कि यह ताज कितने काँटों का ताज है। क्या करें, लोग सोचते हैं कि काँटों का सही पर ताज तो है। ताज पहने तो हैं पर एक-एक साँस चैन से जीने को मोहताज हैं। ऐसा ताज किस काम का ? वस्तुतः जो अध्यात्म को आत्मसात् कर लेता है उनका ताज कभी काँटों का ताज नहीं होता। जो बाहरी ताज से मोहित होता है उसका ताज ही हमेशा बेचैनी की जिंदगी जीता है। संत कहते हैं जीवन के किसी भी क्षेत्र में रहो, अध्यात्म को आत्मसात करके जियो। जब तुम्हें ऐसा लगने लगे कि जिस रास्ते पर मैं चल रहा हूँ, उस रास्ते पर केवल द्वन्द्व, दुविधा और बेचैनी ही है तो उसे उतार कर फेंक देना। और अपने जीवन की अमूल्य निधि को पाने में कहीं चूक न करना। अपने जीवन में सच्चा लाभ उठाने में समर्थ हो, तभी तुम्हारी जिंदगी आनन्द की यात्रा बन सकेगी। अन्तहीन दौड़ में दौड़ते रहोगे तो कुछ पा नहीं सकोगे। लेकिन क्या करें, आज के लोगों को इसी दौड़ में आनन्द आता है। संसार में लोगों की स्थिति बड़ी विचित्र है, अपने दुःखों का रोना तो रोते हैं, पर जब उन्हें उसका उपाय बताया जाता है, तो वे उसे छोड़ते भी नहीं हैं। बड़ी विचित्रता है संसार में। दुःख है तो उसका उपाय कर लो कुछ छोड़ने की ज़रूरत नहीं है, दृष्टि को मोड़ने की जरूरत है। पदार्थवादी दृष्टि को नहीं मोड़ेंगे, अध्यात्म को आत्मसात् करने की कोशिश नहीं करेंगे, त्याग-तपस्या के मार्ग पर चलने की भावना नहीं जगायेंगे तो आखिर हमारे जीवन का यह दुःख दूर कैसे होगा ? संसारभावना का एक प्रयोजन यह भी है कि संसार के दुःखों की वास्तविकता को समझो और उसे दूर करने का मार्ग ढूँढो।