दिव्य विचार: सदाचार, संयम और सादगी अपनाओ- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि गृहस्थ आश्रम में भी कहा गया धर्म, अर्थ और काम तीनों के मध्य संतुलन बनाकर के जीना, अपने जीवन में जितना बन सके सदाचार, संयम, सादगी और सात्विकता से अपने को जोड़कर रखना, जीवन स्ट्रांग होगा। जिस दिन गृहस्थी में प्रवेश करो, एक टारगेट बनाओं, मुझे इस उम्र तक सक्रिय गृहस्थी में रहना है, उसके बाद धीरे-धीरे धीरे मन में उदासीनता लानी है, अपने जीवन को डायवर्ट करना है, और अपने कल्याण में लगना है। आज जो नौकरीपेशा में लोग हैं, साठ साल में रिटायर्ड हो जाते हैं, अब तुम व्यापारी लोग टायर्ड हो जाते हो, रिटायर्ड होने का नाम नहीं लेते। ध्येय क्या है, लक्ष्य क्या है? इसका यदि विचार करोगे तभी अपने जीवन को सार्थक बना पाओगे । ब्रह्मचर्य आश्रम के बाद गृहस्थ आश्रम फिर वानप्रस्थ आश्रम । एक उम्र को पार करो अभी उसकी भी सीमा बताऊँगा। वानप्रस्थी हो जाओं, घर छोड़कर के जंगल में चले जाओं । घर में रहते हुए भी न रहने जैसी स्थिति ले आओ। अपने मन को, अपनी विचारधारा को, पूरी तरह परिवर्तित करने की कोशिश करो। चित्त और चिंतन को मोड़ना शुरु कर दो। चौथा आश्रम है सन्यास आश्रम अपने जीवन को कृतार्थ करने के लिए वानप्रस्थ की भूमिका में, अपनी साधना को प्रखर से प्रखरतर बनाते जाओ, ज्यों-ज्यों उम्र ढले अपने आपको तपाना शुरु करो और जीवन के अंत में सल्लेखना-समाधि धारण करके मनुष्य जीवन के सारतत्त्व को पाओ। आज शिथिलता आ गई। मनोविज्ञान कहता है मनुष्य के जीवन में चौदह-चौदह वर्ष के चार अलग-अलग सर्कल होते हैं। शुरुआत के चौदह वर्षों में मनुष्य का तीव्र मानसिक विकास होता हैं। मनुष्य के जीवन में जब तक यौन विकार प्रकट नहीं होते तब तक उसके मानसिक विकास की गति बहुत तेज होती है, कभी ये भारत में चौदह वर्ष थी, अब घटकर बारह वर्ष हो गई। उसके बाद के चौदह वर्षों में हमारे मन में और ज्यादा परिपक्वता आती हैं।