दिव्य विचार: अपने स्वरूप को पहचानो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि धर्म क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हो, अपने जीवन का उत्कर्ष करना चाहते हो तो आत्मनिष्ठ बनो। आत्मनिष्ठ के दो अर्थ हैं- एक व्यवहार में और एक अध्यात्मिक क्षेत्र में, जो आत्मनिष्ठ होते हैं, वे गाढ़ आत्मविश्वासी होते हैं। जब तक तुम्हारे अन्दर आत्मविश्वास न हो, तुम सफलता को प्राप्त नहीं कर सकते। जीवन व्यवहार में वे ही सफल होते हैं, जो आत्मनिष्ठ होते हैं, आत्मविश्वास से लबरेज रहते हैं। पहले अपने भीतर झाँकों, टटोलो कि मेरी वह निष्ठा है या नहीं है, अभी उसका जन्म हुआ या नहीं, वह प्रकट हुई है या नहीं? यदि जन्म नहीं हुआ तो तुम जीवन में कभी सफल नहीं हो सकते। जीवन में जो भी सफल हुए हैं, वे इसी आत्मनिष्ठा, पूर्ण विश्वास के बदौलत हुए हैं। यदि तुम भी अपने जीवन को सफलता के अन्तिम मुकाम तक पहुँचाना चाहते हो तो अपने भीतर उसी निष्ठा को जगाने की आवश्यकता और अपेक्षा है। जिसके मन में आत्मविश्वास होता है उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं दिखता, जिसका आत्मविश्वास डगमगाया होता है उसके लिए कुछ भी सम्भव नहीं होता। किसी भी काम की शुरुआत में, उसके मन का संशय उसे दोलायमान कर देता है और हमारे यहाँ नीति कहती है- 'संशयात्मा विनश्यति'। जिसके मन में संशय का कीड़ा काटता रहता है, वह सही निर्णय तक कभी पहुँच नहीं पाता और जो सही निर्णय लेने में समर्थ नहीं होता, वह कभी सफल नहीं हो पाता। अपने जीवन को सफल बनाना चाहते हो, जीवन को सफलीभूत करना चाहते तो सबसे पहले इस बात को टटोलकर देखो कि मेरे अन्दर की निष्ठा मेरे भीतर जागी है या नहीं? यह आत्मविश्वास व्यवहार में और दूसरा आत्मविश्वास अध्यात्म में यानी अपनी आत्मा का विश्वास, अपने स्वरूप की पहचान- मैं कौन हूँ, मेरा स्वरूप क्या है? इसका अगर तुम्हें ज्ञान होगा तब तुम्हारे जीवन में स्वतः सहजता और सरलता प्रकट हो जाएगी।