दिव्य विचार: बुढ़ापा हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: बुढ़ापा हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि प्रकृति परिवर्तन शील है। परिवर्तन के इस क्रम में चीजें बनती है, बदलती है, मिटती है। सारी प्रकृति में यह खेल हम रोज देखते हैं। सूरज उगता है, आसमान में चढ़ता है और बाद में दिन ढल जाता है; जो क्रम प्रकृति का है वही क्रम हमारे जीवन का है। हमारा जन्म होता है, बड़े होते हैं, किशोरावस्था को पारकर जवानी आती हैं, बुढ़ापा आता है और जीवन ढल जाता है। ये हमारे जीवन का क्रम है। निसर्ग के इस नियम में बुढ़ापा भी हमारे जीवन का एक बड़ा पार्ट है लेकिन जब भी हम बुढ़ापे को अपने सामने करके देखते हैं तो हमारे समक्ष दो प्रकार के चित्र दिखाई पड़ते हैं। पहले चित्र में लाठियों के सहारे हाँफता-काँपता, बेबस लाचार वृद्ध दिखता है; जो सबकी उपेक्षा और तिरस्कार का पात्र बन रहा हैं; जो अपने से ही हारा हुआ है, थका हुआ है। जब दूसरी तरफ देखते हैं तो हमें एक ऐसा व्यक्ति दिखाई पड़ता है जिसकी पीठ और पेट मिलकर एक हो गई है, एक-एक पसलियाँ गिनने में आ रही हैं लेकिन जिसके चेहरे पर उसकी साधना की प्रखरता झलक रही हैं, उसकी तप का तेज दिख रहा है; जीवन में अंतरंग का उल्लास प्रकट हो रहा है और अपने जीवन का हर पल आनंद ले रहा है। बुढ़ापे के ये दोनों चित्र हमारे सामने हैं। आप भी ऐसे लोंगो को देखते होंगे। एक जो जीवन से हारा हुआ है और एक जो अपने जीवन को संवार रहा है, दोनों अपने साथ है। एक का जीवन बोझ हैं और एक का जीवन उसके लिये वरदान है। आज बात मुझे बस इसकी करनी है कि अपने भीतर झाँकिये, तुम्हारा बुढ़ापा कैसा है, बोझ है या वरदान ? ज्यादातर लोग बुढ़ापे की दहलीज पर आ गये है बूढ़े हो गये है और जिनका बुढ़ापा नहीं आया हैं उनकी जवानी का बुढ़ापा आ गया है, बुढ़ापा तो जुड़ा हुआ है किसी न किसी रूप में। जवानी का बुढ़ापा समझते हो जिनकी जवानी ढलने को है। पचास पार कर गये, समझ लेना सबकी जवानी का बुढ़ापा आ गया और साठ छू गये, समझ लेना बुढ़ापे की जवानी आ गई। सवाल ये हैं, हम अपना जीवन कैसे जिए?