दिव्य विचार: बुढ़ापे में इतनी तृष्णा क्यों ?- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: बुढ़ापे में इतनी तृष्णा क्यों ?- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि मनुष्य जीवन मिला है, हम अपने जीवन में अपने बुढ़ापे का आनंद कैसे लें, चार बातें आज के संदर्भ में विकार, विचार, विवेक, विराग। (1) एक है विकार उम्र के साथ हम यदि उम्रजन्य विकारों से प्रभावित होंगे, हमारा जीवन निश्चयतः दुर्बल होगा। वद्धावस्था जैसे-जैसे बढती है तन और मन में कई प्रकार की विकृतियाँ पनपना शुरु हो जाती हैं। तन शिथिल होता हैं, शरीर दिनों दिन क्षीण होता जाता हैं, लेकिन मन में चार प्रकार के विकार पनपते हैं। (1) पहली बात तृष्णा बढ़ती है जैसे- जैसे मनुष्य की उम्र बढ़ती है, शरीर कमजोर होता है, मन की तृष्णा बढ़ती जाती हैं। बढ़ती हुई तृष्णा उसे अंदर से तोड़ देती हैं। जिस मनुष्य के हृदय में ये तृष्णा का विकार जितना प्रभावी होता है, उसका जीवन उतना ही बेकार हो जाता है। वृद्धावस्था में तृष्णा हम पर हावी न हो उसके लिये हमें प्रयास करना है अभी मैं चर्चा करूँगा जिससे हम अपने जीवन के इस चौथे पन को जीवन का वरदान बना सके, पर अक्सर ये देखने में आता है कि बस की कुछ नहीं है, फिर भी मन में सब कुछ बसाए रखते हैं। इतनी तृष्णा, इतनी गहरी आसक्ति कि कुछ छूटता नहीं है जोंक कि भांति चिपक जाते हैं। ऐसा जीवन जिओगे तो तुम्हारा जीवन तुम्हारे लिये बोझ बन जाएगा। बुढ़ापे की दहलीज पर पैर रखते ही मनुष्य के हृदय में विचार आना चाहिये अब मुझे सावधान होना है। वृद्ध होने का मतलब क्या हैं? वृद्ध अवस्था का शब्दकोष में अर्थ किया गया है- जीर्ण होना या पुराना हो जाना। जीर्ण होने का मतलब है- कमजोर होना, अब जर्जर स्थिति हो गई है, पत्ता पक गया है तो पकने के बाद क्या होना है, टपकना ही है। और कोई रास्ता है क्या समझ में आ जाए ये ओल्ड चीजें हो गई है तो इसको आज नहीं तो कल छूटना ही है, तो हम इसके प्रति जागरुक बने।