दिव्य विचार:अपने सत्य स्वरूप को पहचानो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि जब तक अपने भीतर के शाश्वत तत्व को नहीं पहचान लेते तब तक तुम्हारा कल्याण नहीं होगा। सत्य की बात करते हो, सत्य केवल बोलने तक सीमित नहीं है। जिस दिन तुम्हें समझ में आ जाएगा कि मेरे जीवन का सत्य क्या है, असत्य का व्यामोह छूट जाएगा। असत्य का व्यामोह छूटते ही तुम्हारे आचार, विचार और व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन आ जाएगा। जब आचार, विचार और व्यवहार में परिवर्तन होगा तो तुम्हारे जीवन का आनंद ही कुछ और हो जाएगा। सत्य को पहचानना पहली बात है। बस ! मैं सत्य हूँ, मेरे भीतर का तत्त्व सत्य है, मेरा स्वरूप सत्य है। वह सत्य है और बाकी सब कुछ असत्य है। जो स्थायी है वह सत्य, जो मिट जाए वह असत्य है। जो साथ रहे वह सत्य, जो छूट जाए वह असत्य है। जिसका स्वरूप निखरे वह सत्य, जिसका स्वरूप बिगड़े वह असत्य है। तुम क्या हो? सोचो ! क्या तुम्हारा शरीर स्थायी है? तुमने जिसको सत्य मान रखा ये रूप असत्य है, स्वरूप सत्य है। स्वरूप को पहचानो। सत्य का ज्ञान होना, सत्य को पहचानना बड़ा कठिन है। मनुष्य के साथ एक बड़ी विडम्बना है उसे सारी दुनिया का ज्ञान है लेकिन खुद की पहचान नहीं। खुद की पहचान नहीं, खुद का ज्ञान नहीं, खुद से काफी दूर है। ये आँखें सारी दुनिया का दर्शन कराती हैं पर विडम्बना कुछ ऐसी है कि खुद को नहीं देख पातीं। देखो ! हम लोग जो कुछ भी देखते हैं किस के बल पर देखते हैं? आँख के बल पर देखते हैं लेकिन हमारी आँखें खुद को नहीं देख पातीं। सारी दुनिया को देखने वाली आँखें खुद को देखने में असमर्थ हैं। मनुष्य के पास सारी दुनिया की खबर है पर खुद की खबर नहीं। कुतुबमीनार में कितनी सीढ़ियाँ है ये उसे पता है पर मेरे घर में कितनी सीढ़ियाँ है शायद उसका पता नहीं। यही तो तुम्हारी अज्ञानता का उदाहरण है। सारी दुनिया में क्या है तुम्हें पता है पर तुम्हारे भीतर क्या है तुम्हें इसका पता नहीं। उसका पता करना ही सत्य की पहचान करना है।