दिव्य विचार: संपत्ति रखो पर आसक्त मत हो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: संपत्ति रखो पर आसक्त मत हो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि 'यह मेरा है' इस प्रकार के अभिप्राय को दूर करने का नाम आकिञ्चन्य है, इसी को बोलते है खालीपन। शरीर की आसक्ति को खत्म करो। सम्पत्ति की बात कर रहे हो, ये जड़ सम्पत्ति है, अपनी निजी सम्पत्ति को देखो। मनुष्य के जीवन की ये बड़ी विचित्रता है वह धन-वैभव के पीछे सारी जिंदगी पागल रहता है पर अपने भीतर के गुण- वैभव का उसे पता ही नहीं चलता। धन-वैभव को मत देखो, गुण-वैभव को देखो। तुम्हारे अंदर भरा हुआ जो अपार भण्डार है उसे पहचानने की कोशिश करो। जो तुम्हारा है उस पर तुम्हारा ध्यान नहीं और जो तुम्हारा नहीं है उसके पीछे तुम पागल हो। अपने को पहचानो, अपने को सम्हालो । जो शाश्वत है, स्थायी है, तुम्हारा स्वभाव है उसका संरक्षण करो लेकिन तुम शाश्वत को भूलकर भंगुर के पीछे लग रहे हो, स्थायी को भूलकर क्षणिक के पीछे पागल हो रहे हो, निजी को भूलकर पराये की सेवा में लगे हो और स्वभाव को त्याग कर विभाव के पीछे भाग रहे हो। पहचानो, अपनी सम्पत्ति क्या है? तुमने पर को अपना मान लिया है। पर को जब तक अपना मानते रहोगे दुखी बने रहोगे और जिस दिन अपने आप को पहचान लोगे सुखी हो जाओगे। ये सम्पत्ति, जड़ सम्पत्ति है इसका कोई अंत नहीं। सम्पत्ति को साथ रखो लेकिन सम्पत्ति में स्वामित्व मत रखो, उसमें आसक्त मत हो। सम्पत्ति के लिए मत जियो, सम्पत्ति का जितना उपयोग करना है करो, उसमें आसक्त मत बनो। बंधुओं ! मकान ही क्या, संसार की हर वस्तु मनुष्य की इस अज्ञानता पर हँसती है, जिन्हें वह अपना मानने का भ्रम पालता है। काश! तुम पहचान पाते तुम्हारा क्या है, तुम्हारी अपनी सम्पत्ति क्या है? ये सब पराई हैं, तुम्हारी नहीं। इन्हें छोड़ो, इनसे विमुख हो और अपने को पहचानने की चेष्टा करो। जो अपने को पहचान लेता है वह पराये में कभी नहीं उलझता। कभी आपने सोचा है कि आपके जीवन की दशा क्या है? एक दिन सब छूटने वाला है।