दिव्य विचार: आपके अंदर आसक्ति अज्ञान का प्रतीक है- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: आपके अंदर आसक्ति अज्ञान का प्रतीक है- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि किस पर मुग्ध हो रहे हो? शरीर पर आसक्त मत हो, शरीर का उपयोग करो. ये शरीर मेरा नहीं है. ये मेरे साथ जाने वाला नहीं है, ये कभी भी विनष्ट हो जाने वाला है, इस पर आसक्ति मेरे अन्दर के अज्ञान की परिणति है। मुझे इस पर आसक्त नहीं होना है। शरीर का उपयोग करके अपने भीतर के अशरीरी तत्त्व को प्राप्त करना है। एक सम्यग्दृष्टि भी शरीर का उपयोग करता है और एक अज्ञानी व्यक्ति भी शरीर का उपयोग करता है। सम्यग्दृष्टि अपने शरीर को मोक्ष का साधन मानकर उसका उपयोग करता है और मिथ्यादृष्टि अपने आपको ही शरीर रूप मानकर चौबीस घण्टे उसमें ही रमा रहता है। उसकी स्थिति घोड़े की तरह होती है। जो घोड़े पर सवार होता है, जो घोड़े की सवारी करता है उसको रईस बोला जाता है और उससे उल्टा एक घोड़े की सेवा करने वाला होता है, चाकरी करने वाला होता है, चौबीस घण्टे उस घोड़े की सेवा में लगा रहता है उसे सईश कहते हैं। सईश घोड़े की चाकरी करने वाला और रईश घोड़े का उपयोग करने वाला। आप रईस बनना पसंद करते हो या सईश बनना पसंद करते हो? रईस बनो, सईशपने को छोड़ दो। देह का उपयोग करो। देह के इस घोड़े पर सवारी करो, इसकी सेवा मत करो। जिस दिन तुम इस शरीर को पर मान लोगे उसी दिन रईसों की श्रेणी में आ जाओगे। दुनिया में तथाकथित जितने रईश लोग हैं अध्यात्मवेत्ताओं की दृष्टि में सब सईश हैं, सब चाकर हैं, गुलाम हैं। ऊपर से उनकी रईशी दिख रही है पर उनके भीतर ऐसा कुछ भी नहीं है। वह तत्व हमारे भीतर प्रकट होना चाहिए। उस तत्त्व को हम अपने भीतर प्रकट करें लेकिन क्या करें आखिरी आखिरी समय तक लोगों को अपने शरीर के प्रति आसक्ति बनी रहती है। 70- 70,80-80- साल की उम्र होने के बादभी खिजाब लगाने की आदत नहीं छूटती। आप बने है, दॉत गिर गए है, गाल बिल्कुल धस गए है लेकिन फिर भी अंदर की ममता और आसक्ति बड़ी विचित्र होती है।