दिव्य विचार: ब्रम्हचर्य के बिना साधना संभव नहीं- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: ब्रम्हचर्य के बिना साधना संभव नहीं- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि आज बात ब्रह्मचर्य की है। वह ब्रह्मचर्य जिसके बिना कोई साधना फलवती नहीं होती। प्रत्येक साधना-पद्धति में ब्रह्मचर्य को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। ब्रह्म का अर्थ होता है आत्मा। आत्मा की उपलब्धि के लिए किया जाने वाला आचरण ब्रह्मचर्य कहलाता है। जो अपनी आत्मा के जितना नजदीक है वह उतना बड़ा ब्रह्मचारी है और जो आत्मा से जितना अधिक दूर है वह उतना बड़ा भ्रमचारी है। हमें ब्रह्मचारी और भ्रमचारी में भेद करके चलना है। जो ब्रह्म को पहचाने और उसका आचरण ब्रह्मचर्यमय होता है वह ब्रह्मचारी तथा जिसे अपने आत्म-ब्रह्म का ज्ञान नहीं, जो भ्रम में जिए वह भ्रमचारी। प्रभो ! अनादि से अपने ब्रह्म-स्वरूप को न जान पाने के कारण मैं भ्रमचारी बनकर इस संसार में फिरता हुआ दुखों का पात्र बना रहा, आज आपकी कृपा से मुझे मेरा ज्ञान हुआ, मुझे मेरा परिचय प्राप्त हुआ और अब मैं ब्रह्मचर्य के रास्ते को अंगीकार करके आपके नजदीक आने का मार्ग पकड़ रहा हूँ। बंधुओं ! ब्रह्मचर्य बहुत उच्च आध्यात्मिक साधना है। जब कभी भी ब्रह्मचर्य की बात आती है तो उसका सम्बन्ध प्रायः यौन-सदाचार तक सीमित रखा जाता है लेकिन ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध केवल यौन सदाचार तक सीमित नहीं है। यौन-संयम मात्र ब्रह्मचर्य नहीं है, ब्रह्मचर्य का मतलब है विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि से सम्पन्न होकर जीना। ब्रह्म यानी आत्मा की ओर मुड़ना। जो आत्मा के जितना नजदीक है वह उतना बड़ा ब्रह्मचारी और जो आत्मा से जितना दूर है वह उतना अब्रह्मचारी। मतलब आत्मा की निकटता और दूरी ही ब्रह्म और अब्रह्म का द्योतक है। अगर हम ऊँची भूमिका के स्तर से विचार करते हैं तो आत्मा से दूर गए, भ्रम में फंसे, आत्मा के नजदीक हुए तो ब्रह्म को पा लिया। हमें आत्मा से दूर कौन ले जाता है? अगर देखा जाए तो हम तो अपने भीतर हैं लेकिन फिर भी भीतर रहकर भी हम अपने आप से कोसों दूर हैं।