दिव्य विचार: विरक्ति से संस्कार जगते हैं - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि आज के चार शब्द साथ-साथ जोड़ लो। आसक्ति, विरक्ति, विकृति और प्रकृति। आसक्ति रोकती है, अवरोध पैदा करती है, विरक्ति प्रोत्साहित करती है, आगे बढ़ाती है। जब मनुष्य अपनी आसक्ति को मंद करता है तो भीतर में विरक्ति के संस्कार जगते हैं, विरक्ति के भाव बढ़ते हैं, आसक्ति मंद होती है और ऐसा व्यक्ति अपनी विकृतियों के शोधन में तत्पर हो जाता है, तब अपनी स्वाभाविक प्रकृति को प्राप्त कर पाता है। आसक्ति रोकती है, शक्ति के ऊपर आसक्ति हावी होने के बाद कुछ नहीं किया जा सकता। सुकुमाल मुनि का जीवन याद करो, जिन्हें सरसों का दाना भी चुभता था। सरसों का दाना जिन्हें चुभा करता था उन्हें श्यालिनी के दश नहीं चुभे। तीन दिनों तक श्यालिनी अपने दो बच्चों के साथ जिन्हें खाती रही, कमर तक खा लिया लेकिन उन्होंने उफ तक नहीं किया। क्या शरीर बदल गया? संहनन बदल गया? क्या बदला? जब तक देह के प्रति आसक्ति थी तो सरसों का दाना भी चुभन पैदा करता था और देह से विरक्ति हो गई तो श्यालिनी के दंश तक नहीं चुभ सके, इतनी स्थिरता आ गई। बन्धुओं ! मैं आप से भी कहता हूँ जब तक आसक्ति में जिओगे, रोते रहोगे और जब विरक्ति आएगी तो हँसना सीख जाओगे। ये शरीर है। शरीर को पाकर एक व्यक्ति अपने शरीर के पोषण में लगा रहता है, उसी में रत रहकर अपने संसार को बढ़ाता है और एक व्यक्ति उसी शरीर के माध्यम से संसार को पार कर लेता है, दृष्टि का खेल है। आसक्ति होगी तो संसार में घूमोगे, विरक्ति होगी तो संसार में पार हो जाओगे। विवेकहीन व्यक्ति जिस काया को पाकर संस्कार के बीज का पोषण करते हैं. विवेकी व्यक्ति उसी काया का सही इस्तेमाल करके संसार के बीज का शोषण करते हैं। एक संसार को पुष्ट करता है और एक संसार को सुखा डालता है। दृष्टि क्या है? विवेक जगाओ।