दिव्य विचार: बताओ पाप ज्यादा करते हो या पुण्य? मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: बताओ पाप ज्यादा करते हो या पुण्य? मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि चौबीस घण्टे पाप करते हो, मन से करते हो, वचनों से करते हो और शरीर से करते हो और मुश्किल यह है कि पाप करते वक्त तुम्हें पाप, पाप जैसा लगता भी नहीं है। मन में किसी के प्रति ईर्ष्या, घृणा, नफरत, द्वेष, बैर, वैमनस्य के भाव आना पुण्य है या पाप? किसी को नीचा दिखाने का भाव पुण्य है या पाप? किसी को तिरस्कृत करने का, किसी को अपमानित करने का, किसी के साथ छल करने का, किसी को प्रताड़ित करने का भाव आना पुण्य है या पाप? किसी प्रकार का दुर्भाव आना है या पाप? अपने मन से पूछो चौबीस घण्टे में कितनी बार तुम्हारा मन पटरी से नीचे उतरता है? बोलो भोग विलासिता की कामना पुण्य है या पाप? समझ रहे हैं- बाहर से हम कुछ होते हैं और भीतर कुछ चलता रहता है। अब यह बताओ पाप ज्यादा करते हो या पुण्य? मन से कितना पाप होता है; तुम्हें इसका एहसास है? तुम किसी पर गुस्सा कर रहे हो, झल्ला रहे हो, उस पर चिल्ला रहे हो, पुण्य कर रहे हो कि पाप? जब पता है यह पाप है तो फिर पाप से इतना अनुराग क्यों? है न विचारणीय बात? जब मालूम है यह पाप है तो फिर पाप से इतना अनुराग क्यों? पाप के प्रति इतना झुकाव क्यों? पाप से इतना लगाव क्यों? महाराज ! हमें दूसरों का पाप पाप दिखता है, खुद का पाप, पाप नहीं, वह मजबूरी दिखती है। क्या करें, गुस्सा करना पड़ता है कोई दूसरा गुस्सा करे तो कहोगे - गुस्सैल है। दूसरा यदि कुचक्र रचे तो कहेंगे कि आदमी बड़ा षड्यन्त्रकारी है, खुद करे तो थोड़ा बहुत तो तिकड़म लगाना ही पड़ता है, यह तो ट्रैक्ट है, कैसा दोहरा नजरिया है अपने जीवन के प्रति। यह बात कहाँ से आई? यह प्रवृत्ति, यह मान्यता जब तक हमारे भीतर बैठी रहेगी, हम अपनेआपको पाप से बचाने में समर्थ नहीं होंगे। अपने आपको पाप से बचाना है तो हमें सबसे पहले पाप को पहचानना होगा, पाप करने से डरना होगा।