दिव्य विचार: मौत से मत भागो, जीवन संवारो-:मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि अशरणभावना का उद्देश्य मौत से भयभीत होकर जीवन से भागना नहीं है, अपितु मृत्यु की अनिवार्यता को समझकर जीवन को संवारने का प्रयत्न करना है। जीवन से भाग कर कभी हम जीवन को सुधार नहीं सकते। मृत्यु से डर कर कभी मृत्यु को टाल नहीं सकते । संत कहते हैं - मृत्यु की अनिवार्यता को स्वीकारो और मृत्यु से डर कर भागने की अपेक्षा उसे स्वीकारने के लिये तैयार हो जाओ। जो मृत्युबोध को प्राप्त हो जाता है उसकी जिंदगी अपने आप सुधरने लगती है। वस्तुतः जब हम मौत को नज़दीक महसूस करने लगते हैं तभी से हमारी जिंदगी में सुधार शुरु हो जाता है। हर आदमी मृत्यु को टालना चाहता है, वह चाहता है कि मेरी मृत्यु टल जाये। मौत न आये, लेकिन बन्धुओ ! किसी के टालने से आज तक मृत्यु टली नहीं है। संसार में बड़े-बड़े ज्ञानी, धनी, मानी लोग आये और चले गये। उनने भी मृत्यु को टालने की कोशिश की। यदि मृत्यु अटल न होती तो आज तक संसार में कोई मरा नहीं होता। सब अमर हो गये होते। लेकिन यह संभव नहीं है। जिन्हें हम अमर करते हैं, उन देवताओं को भी एक बार मरना पड़ता है। संसार में कोई अमर नहीं है, यह तो एक अनिवार्यता है। मृत्यु को टाला नहीं जा सकता और जब मृत्यु अटल है तो समझदारी इसी में है कि मृत्यु को हम स्वीकारें, मृत्यु से भय खाकर उससे दूर भागने की जगह मृत्यु के स्वागत की तैयारी करें। अशरणभावना कहती है - बाहर तुम्हें कोई भी मृत्यु से बचाने वाला नहीं है। मृत्यु से यदि बचना चाहते हो तो आत्मकेन्द्रित हो जाओ। जो आत्मा में केन्द्रित हो जाता है, वह मृत्युंजयी हो जाता है। मौत उसके पास आती तो है लेकिन उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। आत्मकेन्द्रित आत्मसाधक के द्वारा मौत की भी मौत हो जाती है। मृत्यु उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाती। वह मृत्युंजयी बन जाता है। मौत से घबराने से, मौत से भागने से मौत से पीछा नहीं छूटता। मौत से मैत्री करने से ही मौत से पीछा छुड़ाया जा सकता है।