दिव्य विचार: हमेशा संतुष्टि का भाव रखिए- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि नम्बर चार- सन्तोष अपनाइए। सन्तोष... जब कभी भी सन्तोष की बात आती है तो लोगों का ध्यान केवल रुपयों-पैसे के मामले में सन्तोष पर केन्द्रित हो जाता है। निश्चित धन-पैसे की तरफ सन्तोष तो रखना चाहिए, रखते ही हैं लेकिन केवल धन-पैसे के प्रति सन्तोष की बात नहीं है। हर मामले में सन्तोष, मन में असन्तोष की ज्वाला मत जलने दीजिए। अपनी इच्छा-आकांक्षाओं का विस्तार ही असन्तोष है। उससे अपने आपको बचाइए और सन्तोष को धारण करने का अभ्यास बनाइए। ठीक है, कुछ अपने मनोनुकूल नहीं हो रहा है, सन्तोष। अपने मन की तृष्णा को ज्यादा मत बढ़ने दें, किसी ने कुछ कह दिया सन्तोष रख लीजिए। जो भी नकारात्मकताएँ हैं, यदि उनके प्रति अपने मन में सन्तोष रखने का आपने अभ्यास बढ़ा लिया तो आपके अन्दर कभी भी कोई भी कष्ट नहीं हो सकता । अरे भैया ! चलो, थोड़ा सन्तोष रखो न, क्या फर्क पड़ता है, बोल दिया सो बोल दिया, हो गया सो हो गया, मनोनुकूल नहीं हुआ है तो भी ठीक है। जितना तुमने पाया, उतने में ही सन्तोष रख लो न, जो तुम्हें मिला है, उतने में ही सन्तोष रख लो न। सामने वाले ने जितना कह दिया, उतने में ही सन्तोष रख लो न। कई बार तो देखो, आप लोगों के साथ क्या स्थिति बनती है। किसी ने आपकी प्रशंसा की, निन्दा नहीं की प्रशंसा की लेकिन अपेक्षित प्रशंसा नहीं की तो आपको तकलीफ होती है कि नहीं? उसने मेरे प्रशंसा में बोला तो पर पूरा नहीं बोला, मेरा ढंग से परिचय नहीं दिया, मैं इतना बड़ा आदमी हूँ। क्या हो गया? उसने जो प्रशंसा के चार शब्द भी बोले, उसका तुम्हें सुख नहीं, मेरा परिचय ढंग से नहीं दिया, इसका दुःख है। यह असन्तोष हो जाता है, अच्छों-अच्छों को हो जाता है।