दिव्य विचार: प्रतिकूलता में व्याकुल न हों- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि बन्धुओ ! इस सत्य को जो जान लेता है, वह कभी नहीं घबराता, उसके मन में आकुलता नहीं आती। संसार में घटित होने वाली सब घटनाओं को सहजता से सहने की सामर्थ्य, जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव के बाद भी अपने मन की प्रसन्नता टिकाये रखना, इसकी क्षमता हमें अनित्यभावना से मिलती है। इसलिये नियमित इस भावना को भाने का प्रयास करें। इससे आकुलता और आसक्ति छूटती है। आप लोगों को एक सूत्र दिया था -'यह भी बीत जायेगा ।' जब-जब प्रतिकूलता सामने आये, समझ लो थोड़ी देर की बात है। जब-जब तुम्हारे मन में हीनता का भाव आवे, विपरीत परिस्थितियों में भी यह सोचो कि 'यह थोड़ी देर की बात है', अपने आप स्थायित्व आ जायेगा और यह स्थायित्व आपकी आकुलता को कम करेगा, इसके अलावा कोई मार्ग भी नहीं है। ध्यान रखना, रोने-धोने, हाथ-पैर पटकने से बीती हुई बात कभी लौटकर नहीं आती। जब यह हकीकत है, तो फिर इतने आकुल-व्याकुल क्यों होते हो ? आकुल-व्याकुल होने के बाद फिर कहते हो -'क्या करें, ऐसा ही होना था।' अरे भैया, इतने बाद में कहने की अपेक्षा पहले ही स्वीकार कर लो। बन्धुओ ! यही तत्वज्ञान का लाभ है। अपने जीवन में आई बड़ी से बड़ी विषमता में भी समता भाव रखना, आकुलता-आसक्ति कम होना। क्योंकि जैसे- जैसे समता बढ़ेगी, धैर्य बढ़ेगा, वैसे-वैसे जीवन में सरसता भी बढ़ती जाती है। मैंने आपसे कहा था - 'तन भी नश्वर है, धन भी नश्वर है और परिजन के सम्बन्ध भी नश्वर हैं। उनके मध्य रहो पर उनमें ज्यादा उलझो मत। जीवन की नश्वरता को समझो। कभी भी मौत हमारे ऊपर हावी हो सकती है, कभी भी जीवन का अन्त आ सकता है। वस्तुतः सच्चे अर्थों में देखा जाय तो काल हमारे सिर पर तलवार लेकर खड़ा है। जब चाहे उसका प्रहार हो सकता है। इससे पहले कि काल का प्रहार हो, हम अपने जीवन को सन्मार्ग पर लगा लें। अपनी बुद्धि को धर्म में स्थिर करने का प्रयत्न करें। अपने चित्त को शान्त करने का प्रयास करें।