दिव्य विचार: सत्य के ज्ञान का नाम है सम्यग्दर्शन- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि जीवन की सच्चाई को समझो। सच को जानने का मतलब है जीवन के यथार्थ को पहचानना। जब तक तुम्हारे अंतरंग में सत्य का ज्ञान नहीं होगा तब तक कल्याण नहीं हो सकता। सत्य क्या है इसको पहचानो। जो दिख रहा है वह सच नहीं। तुम कहते हो 2 और 2 चार झूठ, तुम्हें जो दिख रहा है सब झूठ। ये सारा संसार झूठ का पुलिन्दा है। सब झूठ है। महाराज ! बात समझ में नहीं आ रही। अभी आ जाएगी। थोड़ी देर में आएगी। सच इतनी जल्दी समझ में आ जाए तो बात ही क्या है। अभी तक तो कल्याण हो गया होता। समझो जो दिख रहा है वह सच नहीं; जो देख रहा है वह सच है। कौन देख रहा है? आँखे। नहीं... आत्मा देख रहा है। बस उसे पहचान लो; सत्य का ज्ञान हो गया। सत्य का ज्ञान हो गया तो कल्याण हो गया। इस सत्य के ज्ञान का नाम ही सम्यग्दर्शन है। अभी तुम्हें क्या सच लगता है? ईमानदारी से बोलो। जो तुमने जोड़ रखा है वह सच लगता है, तुम्हें पैसा सच दिखता है, पत्नी सच दिखती है, पुत्र सच दिखता है, परिवार सच दिखता है। यही सब सच दिखता है। पर परमात्मा का सच कभी तुम्हें दिखाई नहीं पड़ा। पैसा, पत्नी, पुत्र, परिवार और पाप ये तुम्हें सच दिखते हैं जो संसार में लुभाने वाले और भरमाने वाले हैं। तुम्हारे भीतर के परमात्मा का तुम्हें बोध ही नहीं, भान ही नहीं। जो तुम्हें संसार से पार लगाने वाला है उसे तो पहचानो। असत्य को सत्य मानना अज्ञान है। ये सब सच इसलिए नहीं हैं क्योंकि कोई भी टिकाऊ नहीं है। सच वह है जो शाश्वत हो, सच वह है जो स्थिर हो, सच वह है जो स्थायी हो। तुम्हारे पास ऐसा क्या है जिसे स्थायी माना जा सके, बोलो है कुछ भी? कोई एक वस्तु बता दो जो तुम्हारे पास हो और तुम गारंटी पूर्वक कह सको ये मेरी अनन्यनिधि है, शाश्वत है, कभी भी न छूटने वाली है। है एक भी चीज ? तुमने जो भी जोड़ा है वह सब भंगुर है। बस जो तुम हो वह स्थायी हो। पर मुश्किल ये है कि भंगुर के व्यामोह में रात-दिन पागल होते हो और शाश्वत की तुम्हे पहचान ही नहीं।