75 करोड़ के महुए से वनवासियों का अधिकार छिना, चौतरफा सरकारी मार

मझगवां | बरौंधा, मझगवां और चित्रकूट जिले के प्रमुख महुआ उत्पादक क्षेत्र हैं। विभागीय दावा है कि, यहां महुआ का सालाना औस्त  उत्पादन दो हजार टन लगभग है। इसकी बिक्री से होने वालीअनुमानित आय 70-75करोड़ रुपए है। महुआ को वास्तव में पुराने समय से वनवासियों याने आदिवासियों के एकाधिकार वाली वनोपज माना जाता रहा है। उनका जीवनयापन और दैनिक जरूरतों की पूर्ति का पमुख साधन में माना गया है। इतनी ही नहीं महुआ उनकी संस्कृति में भी शामिल है।

शायद ही किसी आदिवासी की कच्ची झोपड़ी के बाहर का आंगन हो जहां लाल-पीला महुआ सूखता हुआ दिखाई न दे। घरों के भीतर सालभर के लिए महुआ रख लिया जाता है। जो अर्थिक और अनाज के सकट में  परिवार के उदरपोषण का सहारा बनता है। इस धारणा को सही नहीं ठहराया जा सकता कि, वनवासी महुआ का इस्तेमाल केवल शराब के लिए करते है। आदिवासियों के लिए महुआ बहुउपयोगी है किंतु अब उनका लाइफ लाइन से एकाधिकार सरकारी हस्तक्षेप के बाद खत्म हो गया है।

सरकारी करों की कुदृिष्ट की चौतरफा ऐसी मार पड़ी कि, महुआ वनवासियों से दूर चला गया। घर-आंगन की बजाए वह गोदामों में कैद हो गया। सरकार ने उसका बिकाऊ कद बढ़ाकर समर्थन मूल्य तक ला दिया। आदिवासी देखते रह गए, उनके आंगन से महुआ की मादक सुगंध और मौजूदगी सिमटकर सरकारी राजस्व की भेंट चढ़ गई।

फिर महुआ का सीजन है पर आदिवासियों में उमंग नहीं। पहले वनवासियों के परिवार जन-बच्चे से मुंहअंधेरे उठकर महुआ के फूल बीनने जंगल चले जाते थे। पौ फटने के साथ ही टोकरी में सफेद फूल लेकर घर के आंगन में सूखने के लिए रख देते थे। अब ऐसा नहीं है।  जो गिने-चुने लोग जाते भी हैं वो केवल निजी उपयोगभर का महुआ ही लाते हैं। महुआ में सरकारी हस्तक्षेप ने उनकी दिनचर्या प्रभावित कर दी है। वर्ना पूरा परिवार महुआ प्रबंधन में ही लगा रहता था। 

स्थानीय व्यापारियों ने हाथ खड़े किए
महुआ मूलत: वनोपज है। जिसे वन विभाग वन समितियों के जरिए संग्रहित कर सरकारी नियमों के तहत बेचता है।    इसके लिए बाकायदे पंजीयन कराना होता है। इसके एवज में 2फीसदी शुल्क का भुगतान अनिवार्य है। सरकार ने महुआ के लिए भी समर्थन मूल्य की घोषणा की है। जिसके लिए उपज को वनोपज होने के बावजूद अनाज की कृषि उपज मंडी ले जाना पड़ता है। जानकार इसे तार्किक तौर पर गलत ठहराते है।

यहां व्यापारी को डेढ़ फीसदी मंडी टैक्स देना पड़ता है। इन सबके अलावा 5फीसदी जीएसटी का भुगतान भी करना पड़ता है। सबसे अहम बात तो यह है कि, जंगल से महुआ लदी गाड़ी निकालना ही टढ़ी खीर है। तीन हजार की टीपी के अलावा विभागीय वसूली से भी निपटना पड़ता है। व्यापारियों के मुताबिक, सारे खर्च मिलाकर प्रति गाड़ी साढ़े 12 फीसदी आता है। ऐसे में व्यापारियों के हाथ कुछ नहीं आने वाला। लिहाजा, सामूहिक निर्णय लिया गया है कि इस साल मझगवां के व्यापारी महुआ नहीं खरीदेंगे। व्यापारियों के रुख को देखते हुए सारा महुआ पड़ोसी राज्य उप्र को भेजा जा सकता है। जहां इतने अधिक कराधान नहीं हैं। वह महुआ बड़ा खरीददार भी है।

टैक्स और सजा दोनों समाप्त हों
ऐसा ही एक पत्र बीते दिनों सांसद गणेश सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखकर मांग की है कि लघु वनोपज पर लगाया जाने वाला जैव विविधता अधिनियम का एक से तीन फीसदी का टैक्स और अपराध पर  5लाख जुर्माना और तीन वर्ष की सजा के प्रावधान को समाप्त किया जाए। इनके कारण व्यापार अपराध की श्रेणी में आ गया है। किसान,छोटे व्यापारी, आदिवासी, मजदूरों के सामने रोजी-रोटी का संकट आ गया है। सभी प्रताड़ित और प्रभावित हैं।

दो प्रतिशत कर छूट देने का तर्क
व्यापारी प्रकोष्ठ मंडल मझगवां के संरक्षक राजकुमार गुप्ता के पत्र का हवाला देते हुए गत  15 मार्च 2021 को मप्र विधानसभा के अध्यक्ष के सचिव अवधेश प्रसाद तिवारी ने सतना डीएफओ को लिखा है कि,महुआ फूल और बीज को जैव विविधता अधिनियम के तहत 2 प्रतिशत कर से राहत प्रदान की जाए।