दिव्य विचार: जीवन में सत्य नहीं तो धर्म-कर्म व्यर्थ- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: जीवन में सत्य नहीं तो धर्म-कर्म व्यर्थ- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि बंधुओं ! अपने मन में, अपनी वाणी में और अपने व्यवहार में सत्य को प्रतिष्ठित करने की कोशिश करें। असत्य के प्रति हमारा चित्त क्यों भागता है? केवल इस वजह से कि हमें सत्य की महिमा का भान नहीं है। झूठ का आश्रय मनुष्य क्यों लेता है इसलिए कि उसे सत्य की शक्ति का भान नहीं है। तुम्हें जिस दिन सत्य की शक्ति का भान हो जाएगा, सत्य की महिमा का ज्ञान हो जाएगा उसी दिन तुम्हारे जीवन से असत्य दूर हो जाएगा। तुम्हें अभी भौतिक पदार्थ ही उपादेय दिखते हैं। झूठ, फरेब, भोगविलास, पाप, पाखण्ड, अनाचार, राग, द्वेष ये सारे विकार हैं जो अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। इन सबसे रहित जो भीतर की शुद्ध परिणति है उधर तुम्हारा ध्यान ही नहीं है। जिस दिन तुम्हें ये लगने लगेगा कि ये सब हेय हैं, ये सब अकल्याणकारी हैं, ये सब जीवन की राह में रोड़े हैं, अवरोध उत्पन्न करने वाले हैं तो तुम्हारा चित्त उधर नहीं जाएगा। तुम उनके बारे में सोचोगे तक नहीं। इनसे तात्कालिक लाभ भले मिल जाए लेकिन दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होते। दीर्घकालिक नुकसान भोगना पड़ता है। ऐसा कार्य मुझे नहीं करना। मन के स्तर पर सत्य है, भावना के स्तर पर सत्य है। कहते हैं जिस व्यक्ति के मन में सत्य नहीं तो वह अपने जीवन में चाहे कितना धर्म-कर्म करे, सब व्यर्थ हैं। जिसके हृदय में सत्य का वास है उसका सारे संसार पर निवास है। कुरल काव्य में लिखा है- जिस मनुष्य के हृदय में सत्य रूपी प्रहरी का शासन होता है वह सारी जनता के हृदय पर शासन करने में समर्थ होता है। मन में सत्य हो तो सब पर तुम्हारा असर होगा। मन में सत्य का मतलब मन में विकार न हो, दुर्भावना न हो, ईष्या न हो, छल-प्रपंच न हो, निश्छलता हो। क्या आप इस बात को गारंटी के साथ कह सकते हो कि अपने मन के स्तर पर मैं कभी किसी के साथ छल भरा व्यवहार नहीं करूंगा।