दिव्य विचार: कर्म सिद्धांत पर अटल श्रद्धा रखो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि इट इज इम्पॉसिबल, असम्भव है। जो काम भगवान् की भक्ति से नहीं हो सकता, वह संसार में किसी भी शक्ति से नहीं हो सकता, यह श्रद्धान रखो। अन्ध-श्रद्धा से बचो। लोग दौड़ते हैं। कहीं चादर चढ़ाएँगे, कहीं प्रसाद चढ़ाएँगे, कहाँ कुछ, कहीं कुछ। आखिर ऐसा करके पाओगे क्या? जिन्हें पूज्यापूज्य का विवेक नहीं, धर्म-अधर्म का ज्ञान नहीं, कर्मसिद्धान्त का बोध नहीं, वह व्यक्ति ऐसा करे तो बात फिर भी समझ में आती है, परन्तु कर्मसिद्धान्त की विवेचना सुनने और करने के बाद भी इस तरह के कर्मकाण्डी बनो, यह समझ से परे है। इन खोटे कर्मकाण्डों में कुछ भी नहीं रखा। कर्मसिद्धान्त के विश्वासी बनो, तब तुम्हारा वास्तविक भ्रम टूटेगा, सम्यग्दर्शन की भूमिका बनेगी, अन्यथा अनादि से संसार में रुलते आए हैं, रुलते ही रहोगे। कुछ भी हासिल नहीं होगा। अपनी-अपनी करनी का फल सबको मिलता है श्रद्धा, अश्रद्धा और अन्धश्रद्धा । मान लूँ अब अन्धश्रद्धालु नहीं बनोगे? अश्रद्धालु तो हैं नहीं, श्रद्धा तो आपके भीतर है। है कि नहीं? बोलो ! देव-शास्त्र-गुरु के प्रति है, अब कुछ नहीं करना है, बस इस श्रद्धा को अटल श्रद्धा में परिवर्तित कर देना है। कौन सी श्रद्धा बनाना? अटल श्रद्धा। कुछ हो जाए, टस से मस नहीं होंगे। कहते हैं-
इदमेवेदृशमेव तत्त्वं नान्यं न चान्यथा ।
इत्यकम्पायसाम्भोवत् सन्मार्गेऽसंशया रुचिः ॥
इसे बोलते हैं अटल श्रद्धा । कर्म सिद्धान्त पर तुम्हारी श्रद्धा अटल है? मैना सुन्दरी की श्रद्धा थी कि नहीं? अगर मेरे कर्म में कोढ़ी पति ही होगा तो वह भी मेरे लिए कामदेव से कम नहीं है। एक सम्यग्दृष्टि के हृदय से ही ऐसे उद्गार निकल सकते हैं। राजा बहुपाल ने अपनी बेटी से क्रुद्ध होकर कहा- तेरी शादी कोढ़ी से ही करूँगा और कर दिया श्रीपाल से सम्बन्ध । सोचो ! अगर व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो वह पिता कितना क्रूर निकला ? पर धन्य है वह मैना सुन्दरी, कोई प्रतिवाद नहीं किया। क्या कहा उसने ? जो मेरे कर्म में लिखा है, वही होगा। उसने कोढ़ी श्रीपाल से हर्षपूर्वक विवाह किया।