दिव्य विचार: श्रद्धा के स्वरूप को समझें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं सबसे प्राथमिक भूमिका में श्रद्धा ही वह माध्यम है, जो हमारे सारे भ्रम तोड़ दे, बशर्ते हम श्रद्धा के स्वरूप को समझें। मैं आपसे सवाल करता हूँ कि श्रद्धा का मतलब क्या है? आपकी भगवान् पर श्रद्धा है, गुरु पर श्रद्धा है, धर्म में श्रद्धा है, पर श्रद्धा का मतलब क्या है? श्रद्धा, आस्था, विश्वास ये तो सब पर्यायवाची नाम हैं। शान्ति तो किसी को अपने पूर्वजों के चरणों में जाने के बाद भी मिल जाती है। श्रद्धा क्या है? बोलो ! देखो ! हम कितने कमजोर हैं। श्रद्धा का मतलब है- यह जो है, बिल्कुल सही है। इनका जो स्वरूप है, वंही सही है, इनका जो मार्ग है, वही सही है, इनका जो कर्म है, वही सही है। है ऐसी श्रद्धा? क्या हम इस पर खरे हैं? हम अपने आप को कहाँ खड़ा पाते हैं? देव-शास्त्र-गुरु पर श्रद्धा की बात हम जिन्दगीभर अपनी जुबान से निकालते रहते हैं, लेकिन देव पर श्रद्धा? यह जो स्वरूप है यही सही है, इनका जो मार्ग है यही सही है और इनका जो कर्म है वही सही है, इनका जो कथन है, वही सही लगता है? जब हम वीतराग देव के प्रति श्रद्धा रखते हैं तो देखो हमारा भ्रम कैसे टूटता है? वीतराग देव के दर्शन करने से भ्रम कैसे टूटता है। यह उद्गार तो हम भगवान के सामने रोज प्रकट करते हैं, भगवान् को सुनाकर आ जाते हैं, कभी ऐसा लगा है कि भगवान् के दर्शन से मेरे नयन सफल हो गए? कभी ऐसा हुआ कि मेरा रोम-रोम प्रक्षालित हो गया? शायद कभी नहीं हुआ। भगवान् की उस वीतराग मुद्रा को देखकर लगता है कि हे भगवन! आप अपने स्वरूप में स्थिर हैं। आपको किसी से राग नहीं, द्वेष नहीं, किसी के प्रति आकर्षण नहीं, किसी के प्रति विकर्षण नहीं, किसी से लगाव नहीं, किसी से अलगाव नहीं, किसी से प्रेम नहीं, किसी से बैर नहीं, किसी से मोह नहीं, किसी से द्रोह नहीं। आप अपने आप में स्थिर हैं। आपके हृदय की प्रसन्नता आपके रोम-रोम से प्रकट होती है।