दिव्य विचार: धन संग्रह में किसी तरह की बुराई नहीं- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: धन संग्रह में किसी तरह की बुराई नहीं- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि बंधुओं ! दान के सन्दर्भ में आज की चार बातें- संग्रह, अनुग्रह, परिग्रह और विग्रह। आप गृहस्थ हो; धन का संग्रह करते हो। धन का संग्रह कतई बुरा नहीं है। कुछ लोग धनी- मानी लोगों को बड़ी अलग दृष्टि से देखते हैं। ऐसी अवधारणा बनाकर रखते हैं कि जिनके पास पैसा है वे सब पापी ही हैं, अनाचारी ही हैं, पाखण्डी हैं, अनैतिकता से जीवन जीते हैं। ऐसा नहीं है; गृहस्थ जीवन में धन-संग्रह का उपदेश हमारे तीर्थंकर भगवन्तों ने दिया है। वे कहते हैं- धन का संग्रह करो। संग्रह करो मतलब पैसा इकट्ठा करके रखो, जोड़ते जाओ और जोड़-जोड़कर रखते जाओ। नहीं; जोड़ना संग्रह है और जोड़कर उससे चिपक जाना परिग्रह है। क्या कहा? जोड़ना संग्रह है और जो जुड़ा है उससे चिपक जाना परिग्रह है। संग्रह से अनुग्रह होता है और परिग्रह से विग्रह। विग्रह यानि झगड़ा। तुमने संग्रह किया; अनुग्रह करो और संग्रह नहीं करोगे तो अनुग्रह नहीं कर सकोगे। लोकोपकार के जितने भी कार्य हैं बिना धन के संभव नहीं होते। धन कहाँ से आएगा? जब संग्रह करोगे, अर्जन करोगे तभी तो आएगा। इसलिए हमारी संस्कृति कहीं धन का निषेध नहीं करती। धन का संग्रह करो पर किसके लिए? अनुग्रह के लिए। अनुग्रह मतलब उपकार, परोपकार। स्व-पर के कल्याण के लिए धन का संग्रह करो। धन को जल की तरह कहा गया है। जल का स्वभाव होता है बहना। आज की भाषा में धन को लिक्वड (तरल पदार्थ) बोलते हैं। लिक्वड द्रव (तरल पदार्थ) है जल। जल जितना बहेगा उतना बढ़ेगा। लेकिन पानी कहाँ बहता है नीचे की ओर बहता है। जहाँ उसकी आवश्यकता है वहाँ पानी को बहाओ। पर पानी को बेवजह मत बहाओ। जब जरूरत है तब बहाओ, जहाँ जरूरत है वहाँ बहाओ । स्टोरेज (संग्रहण) की व्यवस्था करो। संग्रह करो ताकि आवश्यकता पर काम आए।