दिव्य विचार: धर्म की प्यास बनी रहनी चाहिए- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: धर्म की प्यास बनी रहनी चाहिए- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि जो बारह महीने मन्दिर नहीं जाते, वे दश दिन मन्दिर जाते हैं। लोग पूजा करेंगे, पाठ करेंगे, व्रत करेंगे, उपवास करेंगे। ऐसे-ऐसे लोग, जो व्यसनों में भी लिप्त हों वे भी दश-दश दिन का उपवास कर लेते हैं, यह लगाव है। लेकिन ग्यारहवें दिन क्या हुआ? लगाव कहाँ गया? यही है लगाव का परिणाम, जो कब अलगाव में बदल जाए, कोई पता नहीं। लगाव हुआ और साथ ही साथ अलगाव की बात आ जाती है। लगे रहो, लगे रहो, लगाव बरसाती मेंढक की भाँति होता है, बारिश में टर-टर करता है और बारिश खत्म होने के बाद उसका पता ही नहीं चलता। लगाव की भूमिका, प्रारम्भिक भूमिका है पर पर्याप्त नहीं है। तुम सब भाग्यशाली हो कि तुम्हारे मन में लगाव है लेकिन एक कदम आगे चलो, लगाव को ललक में बदलो । लगाव और ललक में फर्क जानते हैं? ललक किसको बोलते हैं? तीव्र उत्कण्ठा, तीव्र पिपासा, उसके बिना मैं रह ही नहीं सकता, सब काम छोड़ दूँ, यह नहीं छोड़ सकता। यह ललक है, तुम्हारे अन्दर कितनी ललक है। सन्त कहते हैं- यदि तुम्हारे हृदय में ललक जग गई तो तुम्हारा कप हमेशा सीधा रहेगा। धर्म की प्यास बनी रहनी चाहिए। एक है लगाव, उसका विरोधी है लत और एक है ललक उसकी विरोधी है लिप्सा । लिप्सा मनुष्य के हृदय में जगती है, लत का शिकार मनुष्य होता है लेकिन उसके भीतर लगाव जैसा होना चाहिए, वैसा नहीं दिखता। उसके अन्दर ललक जैसी होनी चाहिए, वह नहीं दिखती। धर्म की ललक जगाओ। उसके बिना बेचैन हो जाएँ। मैं आपसे एक सवाल करता हूँ, जिससे आपको प्रेम होता है, जुड़ाव होता है, लगाव होता है, उससे हर पल मिलने की इच्छा होती है कि नहीं होती? होती है, क्यों होती है? लगाव है?। नहीं, प्रगाढ़ लगाव है, उसके प्रति मेरे मन में प्रगाढ़ लगाव है, इसलिए हर पल उससे मिलने की इच्छा होती है, उससे बात करने की इच्छा होती है। उसके बारे में सुनने की इच्छा होती है। उसका गुणगान करने की, उसकी प्रशंसा करने की इच्छा होती है।