दिव्य विचार: आध्यात्मिक दृष्टि विकसित करें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: आध्यात्मिक दृष्टि विकसित करें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि ये दृष्टि किसके अंदर होती है? जिसको अपनी आत्मा का ज्ञान हो, जो शील, संयम, सदाचार की महिमा को जानता हो। आज इन्हीं का नाम लेने वालों के जीवन में बढ़ते हुए कदाचार को देखो तो बड़ा आश्चर्य होता है। अपने जीवन में आध्यात्मिक दृष्टि विकसित होनी चाहिए। ब्रह्मचर्य का मतलब है आँख की पवित्रता। आँखों में पवित्रता ही ब्रह्मचर्य है। अगर तुम्हारे अंदर ब्रह्मचर्य है तो आँखों में पवित्रता आ जाएगी, किसी को देखकर तुम्हारा मन नहीं डोलेगा। एक दिन एक युवक ने मुझसे पूछा- महाराज ! आप दिगम्बर मुद्रा में रहते हैं, आपके पास अनेक स्त्रियाँ आती हैं, बैठती हैं, बातचीत भी करती हैं, क्या कभी आपका मन नहीं डोलता ? उस युवक ने साहस पूर्वक पूछा। ये विचार आपके मन में भी आ सकता है। मैंने उससे एक ही सवाल किया- ये बताओ, जब कभी भी तुम अपनी माँ- बहिन के पास रहते हो तो क्या तुम्हारा मन डोलता है? बोला- महाराज ! कभी नहीं डोलता, उस समय मन में पवित्रता आ जाती है। मैंने कहा- बस, यही अंतर है हममें और तुममें, तुम्हारे लिए तो कोई एक माँ और कोई एक बहिन है, मेरी नजर में तो संसार की सारी स्त्रियाँ माँ और बहिन की तरह हैं। आँखों में ये पवित्रता आते ही ब्रह्मचर्य का विलास प्रकट होगा। पवित्रता चाहिए, दृष्टि की पवित्रता चैतन्य के विलास को जन्म देती है और दृष्टि की अपवित्रता भोग-विलास में फंसा देती है। अभी तक भोग-विलास में ही फंसे हुए हो। आज तक का इतिहास है चैतन्य का विलास आत्मा का विकास करता है और भोग-विलास आत्मा का विनाश करा है। किधर बढ़ रहे हो विकास की तरफ या विनाश की तरफ? आज तक तुमने किया क्या है?