दिव्य विचार: पैसे के लिए इतनी भागम-भाग क्यों? - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: पैसे के लिए इतनी भागम-भाग क्यों? - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि अनित्य भाव का स्मरण करने का मतलब अपनी मृत्यु का सदैव स्मरण करके चलना। कई लोग कहते हैं - संत तो संसार की नश्वरता की बात सिखाकर संसार से पलायन का मार्ग बताते हैं । बन्धुओ ! जगत की नश्वरता का मतलब जगत से पलायन नहीं है। अपितु जीवन का पलायन है। इसका तात्पर्य है - जब आपके पास समय कम होता है और काम अधिक, तब आप क्या करते हैं? एक-एक समय का सदुपयोग करते हैं, कि, कहीं समय व्यर्थ न जाये। इसी तरह संसार की नश्वरता को पहचानकर जितना जीवन मिला है उसे संवारने का उद्यम कर लो, जिससे जीवन सार्थक हो जाये। बन्धुओ ! तन, धन, वैभव ये सभी नश्वर हैं, ये स्थायी नहीं हैं, तब इनसे आसक्ति क्यों ? आसक्ति को घटाइये। ये सम्पदा चंचला है, इसे शास्त्रों में वेश्या कहा गया है और कीर्ति को कुँवारी । ऐसा इसलिये कहा गया है कि 'सम्पदा कभी किसी एक पति के पास नहीं रहती, अपने पति बदलती रहती है। आज इसके पास है तो कल उसके पास इसलिये उसे वेश्या कहा गया । कीर्ति इसलिये कुँवारी है कि जिसे कीर्ति चाहती है, वे कीर्ति को नहीं चाहते और जो कीर्ति को चाहते हैं, कीर्ति उनको नहीं चाहती। इसलिये उसका विवाह नहीं हो पाता । आज की परम्परा में सम्पदा को लक्ष्मी कहा गया है। लक्ष्मी एक प्रतीक के रूप में है। आपने लक्ष्मी की मूर्ति को सदैव खड़ा देखा होगा। क्यों ? इसलिये कि यह कभी टिकती नहीं है, बैठती नहीं है, हमेशा चलने के लिये तैयार रहती है। आज है, कल रहे न रहे कोई भरोसा नहीं। आचार्य कहते हैं - जब चक्रवर्तियों की सम्पदा शाश्वत नहीं रही, तो तुम जैसे साधारण की सम्पदा कैसे शाश्वत रहेगी। इसलिये संपत्ति की आवश्यकता को पहचान कर उसका सदुपयोग करो। पैसा कमाने के पीछे ज्यादा पागल मत हो, पैसे का ज्यादा संग्रह मत करो। जो संग्रहीत धन है, उसका सदुपयोग करो। सार यही है 'अनासक्ति का भाव जब हमारे भीतर बढ़ेगा तभी हम संपदा की नश्वरता को पहचानेंगे।' नित्यप्रति अनित्यभावना भाने से आकुलता-आसक्ति घटेगी।