दिव्य विचार: सहानुभूति की वृत्ति को जागृत करें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि हमारे मन में कोई भावनायें प्रबलता से हों या उभर रही हों, तो अपने चित्त में अन्य वृत्ति को उधार देना। यदि दोनों की ताकत बराबर है, तो वे दोनों स्वयमेव विलय हो जायेंगी। यदि मन में द्वन्द्व की स्थिति उभर रही हैं, तो अपने भीतर सहानुभूति की वृत्ति को जागृत करें, परिणामस्वरूप सहानुभूति की वृत्ति बढ़ेगी और द्वन्द्व वृत्ति अपने आप खतम हो जायेगी। मार्गान्तरीकरण मन में कोई वृत्ति उभरे तो हम अपने चित्त को कहीं और लगा दें, मोड़ दें। संत कहते हैं जब मनुष्य अपने जीवन को किन्हीं उच्च आदर्शों के प्रति समर्पित कर देता है, उसका बार-बार अनुस्मरण करने लगता है, तो चित्त में पहले उभरी हुई दुर्भावनायें स्वयमेव शान्त हो जाती हैं, जिससे हमारे चित्त में शान्ति का आविर्भाव हो जाता है। शोधन- शोधन का मतलब है, उस वृत्ति की जड़ को ही खत्म कर देना। इस प्रकार पहले दमन फिर विलयन, फिर मार्गान्तरीकरण और अन्त में शोधन के क्रम में पहुँचा जाता है। जैन तत्त्व चिन्तकों के अनुसार हम अपनी वृत्ति और प्रवृत्ति में आमूल-चूल परिवर्तन कर सकते हैं। भावनाओं से हम कर्म की निर्जरा करते हैं। निर्जरा का मतलब 'वृत्तियों के क्षरण' से ही है। जब हमारी वृत्तियों का क्षरण होता है तो हमारे भावनात्मक स्वास्थ्य में परिवर्तन आता है, जिससे हमें अहोभाव की अनुभूति होती है, यही कर्म निर्जरा का परम आनन्द है। यह सब कुछ किया जा सकता है, भावनाओं के बल पर। जिसकी जैसी भावना होती है, उसको वैसा फल मिलता है। एक प्रसंग याद आ रहा है - शिष्य गुरु के पास गया और गुरु से कहा गुरुदेव ! वर्षों से ध्यान लगाने की कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन ध्यान में स्थिरता नहीं आ रही है। मुझे ध्यान का उपाय बतायें। मैं परमात्मा का ध्यान करना चाहता हूँ, लेकिन परमात्मा मुझे कहीं दिखाई ही नहीं देता।'