दिव्य विचार: सब त्याग दिया तो लगाव कैसा- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि बाहर का त्याग पर्याप्त नहीं है। बाहर के बाद भी हमारे भीतर बहुत कुछ भरा रह सकता है। जब तक हम अपने भीतर को खाली नहीं करते तब तक जीवन में आनन्द की अभिव्यक्ति नहीं होती। सब त्यागने के बाद अब कुछ त्यागने की बात क्यों? त्याग आकिञ्चन्य बहुत उच्च भूमिका की बात है। मैंने त्याग दिया लेकिन त्यागने के बाद भी मन में ये भाव आ सकता है कि मैंने त्यागा, किसको त्यागा? मैंने घर छोड़ा, परिवार छोड़ा, घोड़े छोड़े, हाथी छोड़े, रतन छोड़े, निधियाँ छोड़ीं, वैभव छोड़ा। तेरा था क्या जो तूने छोड़ा है? छोड़ने के बाद भी यदि तू कहता है कि मैंने छोड़ा यानि तू पकड़े हुए है, अभी खाली नहीं हुआ है। सब त्याग देने के बाद भी; और कुछ नकउअहीं तो जिसे त्यागा है उस त्याग का ममत्व बना रहता है। त्याग के बाद त्याग के ममत्व के त्याग का नाम आकिञ्चन्य है। पूरी तरह खाली हो जाना। अध्यात्म की साधना का चरम रूप आकिञ्चन्य है। मेरा कुछ भी नहीं है ये अनुभूति ही मेरे जीवन का यथार्थ है। जब मेरा कुछ है ही नहीं तो मैं छोडूं कैसे? त्याग देने के बाद भी त्याग के प्रति राग हो सकता है या त्यागी के मन में राग हो सकता है। बाहर से कुछ नहीं है पर भीतर से सब भरा है। यहाँ सब धोती-दुपट्टे में हो, किसी की भी जेब नहीं है, अभी एक पैसा भी तुम्हारे पास नहीं है, जिनकी जेब है उसमें भी दो-चार दस-बीस-पचास हजार होंगे, उससे ज्यादा नहीं। अगर देखो ! तो अभी कुछ भी नहीं है. क्यों गणेश जी अभी एक पैसा भी नहीं है पर करोड़पति हो कि नहीं? एक भी पैसा नहीं है लेकिन सभा में विराजमान करोड़पति अपने आप को करोड़पति मान रहा है क्योंकि कित तो जुड़ा हुआ है। मैं कौन हूँ, मेरा स्टेटस क्या है, मेरे पास कितनी सम्पत्ति है, मेरा कितना वैभव है ये सब मन में है कि नहीं? ये सब बाते मन में बैठी हैं यानि बाहर से छोड़ने के बाद भी मन में राग है।