दिव्य विचार: सम्पत्ति है तो अभिमान कैसा? - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि तुम जिस सम्पत्ति को अपना मान रहे हो वह किसकी है? बोलो किसकी है? महाराज मेरी है। तुम्हारी हो कैसे गई? तुम्हारे पास है. पर तुम्हारी नहीं है इस सच्चाई को जानो। तुम्हारे पास है, तुम्हारी नहीं है, तुमने उसे अपनी मान रखा है। जिस दिन यथार्थ का ज्ञान होगा उस दिन तुम्हें समझ में आ जाएगा भैया ये मेरी नहीं है, मेरे पास है। कौन ऊँचा मालिक या मुख्तार दावा मेरी सम्पत्ति और मेरे पास की सम्पत्ति में बड़ा अंतर है। फीलिंग (अनुभूति) में अन्तर है। मान लिया कि तुम्हारे पास जो सम्पत्ति है। वह तुम्हारी है तो उस सम्पत्ति को अपने हिसाब से मेनटेन रखो, करो कि जैसा मैं चाहूँगा वैसा ही होगा, ये सम्पत्ति सदैव बनी रहेगी, स्थायी बनी रहेगी। है ऐसी सम्भावना? मेरी सम्पत्ति मेरी बनी हुई है ऐसी आप मान्यता रख रहे हो, सच्चे अर्थों में तो तुम कह रहे हो कि ये सम्पत्ति मेरी है पर तुम्हारी नहीं है। महाराज ! तो फिर किसकी है? ये सम्पत्ति कर्म की है। जब ये शरीर ही तुम्हारा नहीं तो सम्पत्ति की बात ही क्या? ये तुम्हारी नहीं है, कर्म की है। कर्म की मर्जी रहने तक तुम्हारे पास है, जिस दिन कर्म चाहेगा एक झटके में छीन लेगा। है तुम्हारे पास ताकत? है तुम्हारे पास सामर्थ्य कि धर्म की मर्जी के बिना एक क्षण भी उस सम्पत्ति को अपने पास रख सको। ये जीवन का यथार्थ है, इसे पहचानो। ध्यान रखो ! सम्पत्ति का त्याग, दो तरह की मानसिकता से किया जाता है- एक व्यक्ति है जो सम्पत्ति को अपनी मानकर त्यागता है और एक व्यक्ति है जो सम्पत्ति को पर मानकर छोड़ता है। दोनों की मानसिकता में बहुत अन्तर होता है। जो सम्पत्ति को अपनी मानकर त्यागता है उसके मन में अभिमान भी आ सकता है, आता भी है लेकिन जो सम्पत्ति को पर मानकर छोड़ता है उसके मन में किसी प्रकार का अभिमान नहीं आता अपितु अपने आपको दायित्व-मुक्त और निर्भर महसूस करता है।