दिव्य विचार: आकांक्षाओं पर अंकुश लगाओ- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: आकांक्षाओं पर अंकुश लगाओ- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि इच्छा कई प्रकार की होती हैं- धन की आकांक्षा, यश की आकांक्षा, काम की आकांक्षा, सत्ता की आकांक्षा ये सारी आकांक्षाएँ मनुष्य को बर्बाद करती हैं, इन पर अंकुश होना चाहिए। धनाकांक्षा पर अंकुश, यश-आकांक्षा पर अंकुश, सत्ता की आकांक्षा पर अंकुश और काम की आकांक्षा पर अंकुश इन चार बातों को ध्यान में रखो। मुझे कितना धन चाहिए इस पर भी नियंत्रण अत्यंत आवश्यक है। यदि मनुष्य यहाँ नहीं जगता तो वह मनुष्य अन्धा ही बना रहता है, दौड़ता ही रहता है। आकांक्षाओं से अपने आपको बचाओ। आसक्ति से बचो। आवश्यकता के ऊपर जब आकांक्षा हावी होती है तो मनुष्य बहुत कुछ उपार्जित और संग्रहित करने के पीछे लग जाता है संग्रह करते-करते उसके प्रति आसक्ति इतनी प्रगाढ़ हो जाती है कि न तो वह उसका उपभोग कर पाता है और न ही उसका उपयोग कर पाता है। संग्रहीत करके रखता जाता है। ये आसक्ति बड़ी खतरनाक है। ऐसा आदमी पैसे का कीड़ा बन जाता है। सन्त कहते हैं आवश्यकता के अनुरुप संग्रह करो। अपनी आकांक्षाओं को सीमित करने की कोशिश करो और जो तुम्हारे पास संग्रहीत है उसमें आसक्त मत हो, अनासक्त भाव रखो, उसका सदुपयोग करो, उसे अच्छे कार्य में लगाने की कोशिश करो, गलत रास्ते में अपने पैसे को कभी मत लगाओ। ये दृष्टि और भावना तुम्हारे हृदय में विकसित हो गई तो जीवन में कभी गड़बड़ नहीं होगी। हमारी संस्कृति कहती है कि तुम्हारे जीवन में धन पैसे की वैसी ही भूमिका है जैसे खेत में फसल की सुरक्षा के लिए चारों तरफ लगाई जाने वाली बाड़। बाड़ लगाने से खेत की फसल सुरक्षित होती है। बाड़ केवल इस ख्याल से लगाया जाता है कि बाड़ न होने पर मवेशी चरकर उस फसल को नष्ट कर सकते हैं इसलिए बाड़ लगाओ। बाड़ बाहर होती है। बाड़ अगर खेत में प्रवेश कर जाए तो खेती कहाँ करोगे? ये धन पैसा तुम्हारे जीवन के निर्वाह के लिए साधन है, साध्य नहीं है।