दिव्य विचार: आसक्ति ही हमें रूलाती है- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि जैसे कोई व्यक्ति पर द्रव्य को पर जानकर छोड़ देता है बस वही उसका वास्तविक प्रत्याख्यान होता है। पर को पर जानकर छोड़ा, मेरा कुछ है ही नहीं, ग्रहण करने की बात बहुत उथली है। ग्रहण करना और छोड़ना बहुत ऊपर की बाते हैं। गहरी बात तो है कि मेरा कुछ है ही नहीं, सब छोड़ दो। आकिञ्चन्य यानी भीतर-बाहर से खाली हो जाना। जब खाली हो जाओगे तो निश्चिन्त रहोगे। अभी आप सब यहाँ खाली होकर बैठे हो, खाली हो इसलिए खुले हुए भी बैठे हो, निश्चिन्त हो। जिस समय आपकी जेब में कुछ रकम हो उस समय इतने निश्चिन्त बैठ पाते हो? जेब में रकम हो और मोटी रकम; जितनी मोटी रकम उतनी ज्यादा चिन्ता होती है, ध्यान वहीं जाता है, यहीं तो जेबकतरों को संकेत मिल जाता है कि माल कहाँ है। बार- बार हाथ जा रहा है जरूर जेब भरी होगी। अभी आपके पास कुछ नहीं है इसलिए निश्चिन्त हो, कुछ भी हो जाए धोती-दुपट्टा कोई क्या ले जाएगा। जो जितना खाली होता है वह उतना खुला होता है और जो जितना भरा होता है उसका मन उतना भारी होता है। खाली करने में सबसे बड़ा बाधक तत्त्व यदि कुछ है तो हमारे मन की आसक्ति अथवा ममता है। अंदर पलने वाली आसक्ति या ममता ही हमे इस संसार में रुलाती है, हमें उलझाती है, ये ही बंधन का कारण है। ये जीव ममता के कारण बंधन को प्राप्त होता है और निर्ममत्व से मुक्त होता है इसलिए यदि तुम्हारे मन में मुक्ति की अभिलाषा है तो सर्व-प्रयत्नों से निर्ममत्व को प्राप्त करो। ममता या आसक्ति चार चीजों से होती है- शरीर से, सम्पत्ति से, सामग्री से और सम्बन्धी से। शरीर से ममत्व, सम्पत्ति से ममत्व, सामग्री से ममत्व और सम्बन्धी से ममत्व। सबसे पहला राग शरीर का राग होता है, देह को व्यक्ति अपना मानता है। देहानुराग व्यक्ति को उसके प्रति आसक्त बना देता है। निज-पर देह के साथ आसक्ति मनुष्य को अन्धा बना देती है, उसके कारण व्यक्ति बहुत दुखी होता है।