दिव्य विचार: संस्कारों के प्रति हमेशा प्रतिबद्ध रहें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि सबसे पहली बात संस्कारशीलता । कन्या के अंदर संस्कार होने चाहिये। वो संस्कार उसे अपने मां-बाप से मिलते हैं। सबसे ज्यादा संस्कार माँ देती हैं क्योंकि माँ हर संतान की प्रथम शिक्षिका होती हैं तो माँ से उसे संस्कार मिलते हैं। वो संस्कार कन्या के भीतर पूरी तरह से होने चाहिये। वो संस्कार जब तक कन्या के भीतर अक्षुण्ण बने हैं तभी वो कन्या अपने जीवन को आगे बढ़ाने में समर्थ हो सकती हैं तो कन्या के भीतर ऐसे संस्कार हो, जो उसके स्वभावोचित्त लज्जा, संकोच, मर्यादा- रक्षा और शील संस्कार के प्रति उसे प्रतिबद्ध करें, उसके अंदर धार्मिकता का पुट बढ़े अपने जीवन को उसी अनुरूप संस्कार और सदाचार से भरकर आगे बढ़े। वह कन्या, जिसके अंदर अच्छे संस्कार हो वह कन्या देश दुनिया में कहीं भी जायेगी तो पूरे के पूरे समाज का गौरव बढ़ाएगी और यदि वह संस्कार खो दे तो मामला सब उल्टा-पुल्टा हो जाएगा तो कन्या के संस्कारों का ध्यान माँ-बाप को रखना चाहिये और कन्या के अंदर ऐसे बीज डालना चाहिये जिससे वे अपनी संस्कारों की रक्षा करें, अपनी मर्यादाओं को न तोड़ सके। आज के समय में संस्कारों का क्षरण बहुत ही ज्यादा हो रहा हैं। आज ये एक अच्छी बात है कि आज की कन्याएँ बहुत पढ़ लिख रही हैं। पढ़ाना-लिखाना कतई गलत नहीं हैं। भगवान ऋषभदेव ने भी भरत- बाहुबली को बाद में पढ़ाया, ब्राह्मी-सुंदरी को पहले पढ़ाया। आज का जो अक्षर ज्ञान और अंक ज्ञान हैं वह ब्राह्मी और सुंदरी के निमित्त से ही मिला हैं। लेकिन पढ़ना अलग बात हैं, शिक्षा अलग बात हैं शिक्षा से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण संस्कार हैं। लड़कियाँ शिक्षित तो हो रही हैं पर संस्कार खो रहे हैं और खोते हुए संस्कार ने समाज में एक विप्लव खड़ा कर दिया हैं। घोर सामाजिक विसंगतियाँ उत्पन्न होती जा रही हैं। हमें चाहिये कि कन्याओं में बचपन से ही हम ऐसे भाव जगाए, जिससे वह अपने संस्कारों के प्रति हमेशा प्रतिबद्ध रहे, उन्हें पता रहे कि मेरी जातीय मर्यादा क्या हैं, मेरी धर्म मर्यादा क्या हैं।