दिव्य विचार: माता-पिता के प्रति कृतज्ञता का भाव हो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: माता-पिता के प्रति कृतज्ञता का भाव हो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि संसार में जितने भी रिश्ते बनते हैं वे सब जन्म के बाद बनते हैं लेकिन एक माँ का ही रिश्ता ऐसा है जो जन्म के पहले से जुड़ जाता है। माँ न हो तो हमारा जन्म भी न हो। माँ के इसी रिश्ते के कारण जब बच्चा बोलना शुरु करता है तो सबसे पहले माँ पुकारता है, ये माँ की महिमा है, ये माँ की गरिमा है। भारत की संस्कृति में माता-पिता को देवता के समान कहा गया हैं। अपितु देवो से भी बढ़कर मानने की बात कही है "मातृ देवो भव, पितृ देवो भव" की उक्ति भारत में चरितार्थ हुई और भारत में हमने ऐसे-ऐसे अनेक आख्यान और प्रसंग पढ़े और सुने जिसमें सपूतों ने अपने माँ-बाप के गौरव को बचाने के लिये सब कुछ उत्सर्ग कर दिया, सर्वस्व त्याग दिया। समय बदल रहा है, विकृतियों का दौर छा रहा है और अब हमें एक ऐसा भी रूप देखने को मिल रहा है कि माँ जिसने हमें जन्म दिया, जीवन दिया, आज उसी माँ को घर से बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है। आखिर ऐसा क्यों? ये एक बहुत गंभीर प्रश्न है। मैं सोच रहा हूँ कि हम जैसे साधु संतो को जहाँ ब्रह्म और माया के गूढ़ रहस्यों की चर्चा करनी चाहिये, वहाँ आपको अपने घर-परिवार में किये जाने वाले व्यवहार के बारे में बताना पड़ रहा है। आपकी घर की कहानी वो बता रहा है; जिसने घर नहीं बसाया। वजह साफ है कि घर-घर की व्यवस्थाएँ कुछ ऐसी बिगड़ गई है जिसने हमारी आंतरिक समरसता को चरमरा दिया है। जीवन का ताना बाना छिन्न-भिन्न हो गया है। यही वजह है कि आज हर व्यक्ति भीतर से घुटन और टूटन महसूस कर रहा है। हमारे जीवन में समरसता हो, प्रसन्नता हो शांति हो ये हमारे जीवन का मूल लक्ष्य होना चाहिये लेकिन संत कहते हैं कि वही व्यक्ति अपने जीवन में समरसता ला सकता है, जिसके हृदय में कृतज्ञता का भाव हो और कृतज्ञता का भाव उसी के हृदय में आ सकता हैं जो अपने उपकारियों के उपकारो का स्मरण रखता हो।