दिव्य विचार: मां के भीतर भगवान का रूप देखें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: मां के भीतर भगवान का रूप देखें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि मैं तो तुमसे यह कहता हूँ माँ को ये जितनी भी दृष्टि तुमने दी है ये दृष्टि सतही है माँ को अगर देखो तो भगवान के रूप में देखो क्योंकि हमने भगवान को नहीं देखा यदि भगवान को देखने के लिये जन्म लिया है तो माँ के बल पर लिया है, पहले ही भगवान तो माँ है, अगर माँ नहीं होती तो हमारे जीवन में क्या होता? सबसे पहला रूप है अगर माँ के अंदर देखना चाहते हो तो भगवान का रूप देखो क्योंकि माँ नहीं तो भगवान के दर्शन भी नहीं। भगवान को कहा जाता है कि भगवान हमारे निर्माता है तो मेरा निर्माण करने वाले कौन है? इस शरीर को जीवन देने वाला, जन्म देने वाला कौन है, वह एक माँ है लेकिन बंधुओं माँ क्या है बंधुओं इसे केवल माँ ही जान सकती हैं, हर कोई नहीं जान सकता। जब शिशु जन्म लेता हैं माँ के पेट में आता है उस घड़ी उसका माँ से गाढ़ संवाद होता है और उसकी दुनिया में एक मात्र माँ होती हैं, जब तक वह शिशु होता है छोटा रहता है तब भी उसका माँ के प्रति विशेष रुझान होता है। चाहे कुछ कर ले माँ के आँचल में छिपते ही उसकी सारी दुनियाँ बदल जाती हैं। वह सारा दुःख दर्द भूल जाता है लेकिन जैसे-जैसे बड़ा होता हैं औरों से संपर्क और संबंध बनने लगते हैं, अपनी माँ को भूलना शुरु कर देता है। माँ को कमतर आँकना शुरु कर देता है और वही एक अवस्था ऐसी आती हैं उसकी माँ उसके जीवन में कोई स्थान नहीं रख पाती। संत कहते हैं इस माँ के बारे में थोड़ा सोचो, समझो, देखो कि आज तुम जो कुछ भी हो उसमें तुम्हारी माँ की कितनी बड़ी भूमिका है। नौ माह तक तुम्हें अपने पेट में रखा । गर्भ के कितने सारे कष्टों को उसने सहा। तुम्हारे कारण उसने अपने सुख-दुख का भी त्याग कर दिया। एक ही ख्याल, एक ही धुन, एक ही लगन कि मेरे पेट में पलने वाले बच्चे को कोई तकलीफ न हो।