दिव्य विचार : ज्ञानी को कभी अभिमान नहीं होता - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज 

दिव्य विचार : ज्ञानी को कभी अभिमान नहीं होता - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज 

मुनिश्री  प्रमाण सागर जी कहते हैं कि मनोविज्ञान की भाषा में दो शब्द हैं- सुपीरियारिटी कॉम्प्लेक्स और इन्फीरियारिटी कॉम्प्लेक्स। ये कॉम्प्लेक्स ही ग्रंथियाँ हैं। शाखा ग्रंथि और राघव ग्रंथि। सुपीरियारिटी का भाव ही अभिमान है और इन्फीरियारिटी का भाव ही दीनता है। दोनों खतरनाक हैं। तुम सोचो धन का मद उन्हें होता है जिनके पास धन है; तो निर्धन को मद रहित होना चाहिए। उनके अंदर मार्दव धर्म आ जाना चाहिए। ज्ञान का मद उन्हें होता है जिनके पास ज्ञान है तो फिर अज्ञानियों को मद होना ही नहीं चाहिए। ज्ञान का मद ज्ञान से होता है या अज्ञान से होता है? सच्चे अर्थों में ज्ञानी को मद नहीं होता अज्ञानी ही मद करता है। ये हीन भावना भी एक प्रकार की नकारात्मक विचारधारा है। जो मनुष्य को अंदर से कमजोर करती है। इससे भी अपने आप को बचाकर रखना चाहिए। व्यक्ति के पास दो आँखें होती हैं। किसी की आँखे ऐसी होती हैं जो पास का देखती हैं दूर का नहीं देख पातीं और किसी की आँखे ऐसी होती हैं जो केवल दूर का देखती हैं पास का नहीं देख पातीं। मैं समझता हूँ अभिमानी की आँखे पास का देखती हैं दूर का नहीं देख पातीं। वह खुद को देखता है और अपने आस-पास की दुनिया को नहीं देख पाता। जो आत्मविमुग्धता में जीता रहता है वह अभिमानी है। दीन व्यक्ति की आँखें केवल दूर का देखती हैं पास का नहीं देख पातीं। उसे दूसरे लोगों की चीज दिखती है, दूसरे लोगों की सफलताएँ दिखती हैं, अपने अतीत की बातें दिखती हैं, अपने भविष्य की बातें दिखती हैं, वर्तमान की नहीं दिखतीं इसलिए वह हीनता की ग्रंथि से ग्रसित हो जाता है। मार्दव धर्म को प्राप्त करने का मतलब अपनी आँख में एक ऐसा चश्मा लगा लेना, एक ऐसी दृष्टि प्राप्त कर लेना है जो दूर का भी दिखा सके और पास का भी दिखा सके।