दिव्य विचार: जगत में सब कुछ परिवर्तनशील- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: जगत में सब कुछ परिवर्तनशील- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि जगत में जो कुछ भी है, वह सब क्षणक्षयी है। परिवर्तनशील है। विनाशीक है। क्षणभंगुर है, कोई भी स्थिर नहीं है। ऐसे अस्थिरता भरे संसार में हम आखिर सहारा किसका लें ? कौन हमारा सहारा है, किसकी शरण में जायें, जो हमें सुरक्षा दे, संरक्षण दे । संत कहते हैं इसका यदि गहराई से विचार किया जाये तो संसार में कहीं भी सुरक्षा नहीं है, कहीं भी संरक्षा नहीं है, कोई भी शरण नहीं है और कोई भी साथ नहीं है। संसार की हर वस्तु और संसार का हर व्यक्ति अपने आपमें अनित्य है, अशरण है, अनाथ है। जो स्वयं अनाथ है वह हमें सनाथ कैसे कर सकता है ? जो स्वयं असुरक्षित है वह हमें सुरक्षा कैसे दे सकता ? जो स्वयं अस्थिर है, वह हमें स्थिरता कैसे दे सकता है ? अशरण भावना यह कहती है है कि शरण की चाह में इधर-उधर भागने से कोई लाभ नहीं है। अपने आप में केन्द्रित हो जाओ। तुम जब अपने आपके शाश्वत स्वरूप पर केन्द्रित होओगे तो तुम्हें सुरक्षा और शरण की ज़रूरत नहीं होगी। जिसे तुम बचाना चाहते हो वह नश्वर है, भंगुर है, उसे कभी बचाया नहीं जा सकता। हमारा दो तरह का जीवन है एक मत्यजीवन और दूसरा अमत्यजीवन । बाहर का यह जो जीवन है वह मत्यजीवन है। विनश्वर है, क्षणभंगुर है, इसे हम बचाने की कितनी भी कोशिश करें, यह बच नहीं सकता। इसे संभालने का हम कितना भी प्रयास करें इसे संवारा नहीं जा सकता। इसका स्वरूप ही ऐसा है। यह उत्पन्न-विध्वंसी है, उत्पन्न होता और नष्ट होता है। आता है और चला जाता है। मत्य कहते ही उसको हैं जो रोज़ मरे। जगत में जो कुछ दिखायी देता है वह सब मत्य है। अमत्य कुछ भी नहीं है। बाहर जो कुछ भी है, वह विनाशीक है उसे बचाया नहीं जा सकता। और भीतर का जो जीवन है वह अमत्य है। मुश्किल यह है कि जो मरने वाला है उसे हम बचाने की कोशिश करते हैं और जो अमर है उसे बचाने का कभी प्रयास नहीं करते।