दिव्य विचार: बाहर नहीं, भीतर केन्द्रित हो जाओ- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि संसार में जब तक हैं तब तक यह हमें साथ दिखते जरूर हैं पर ये हमारा साथ निभाने में समर्थ नहीं होते। ये साथ जा नहीं सकते, साथ दे नहीं सकते, साथ निभा नहीं सकते। क्योंकि ये खुद अनाथ हैं, ये खुद अस्थिर हैं, ये स्वयं क्षणक्षयी हैं। जो स्वयं अस्थिर हैं, वे दूसरों को आखिर कैसे टिका सकते हैं। अशरणभावना कहती है - कि ये जितने भी पदार्थ हैं, जितने भी संयोग हैं, वे सब मृत्य हैं। मृत्य से अमृत्य की कामना करना वैसा ही है जैसे रेत को निचोड़कर तेल पाने की कामना करना। रेत को निचोड़ने से जैसे तेल नहीं निकल सकता, वैसे ही मृत्य के माध्यम से अमृत्य की उपलब्धि नहीं हो सकती। उस अमर तत्त्व को प्राप्त करना है तो अपनी दृष्टि को आत्मा पर केन्द्रित करो, जिस क्षण तुम अपनी दृष्टि को आत्मा पर केन्द्रित कर लोगे, उसी क्षण बाहर का सारा भय दूर हो जायेगा। लेकिन इसके लिये बहुत सजगता की आवश्यकता है। अशरण भावना कहती है कि बाहर नहीं, भीतर केन्द्रित होओ। अपने आप में केन्द्रित हों, अपने भीतर के स्वतत्त्व को पहचानने की कोशिश करो और बाहर के व्यापारों से बचो । हर मनुष्य के मन में अनेक प्रकार के भय होते हैं, उन सबमें सबसे बड़ा भय मरने का होता है। हर व्यक्ति मरने से डरता है। संत कहते हैं कि मरने से तुम कितना भी डरो, मरने को कभी टाला नहीं जा सकता। जन्म और मरण प्रकृति का अनिवार्य नियम है। यह प्रकृति का अटल संयोग है। जो अटल संयोग होते हैं उन्हें कभी टाला नहीं जाता। हमने जिस क्षण जन्म लिया उसी क्षण हमारी मृत्यु सुनिश्चित हो जाती है। मौत की तारीख तो जन्म के समय से ही तय हो जाती है। पर यह हमें पता नहीं रहता कि वह मृत्यु कब आयेगी, इसलिये मनुष्य मृत्यु को झुठलाता है। अशरणभावना कहती है- तुम मृत्यु को झुठलाने की कितनी भी कोशिश कर लो, मृत्यु टल नहीं सकती। क्योंकि वह अटल है। अटल को टालने का प्रयास केवल बेवकूफी है। निरन्तर मृत्युबोध से जुड़े रहो, मौत को अपने सामने महसूस करो, मौत के स्थायित्व का अहसास करो।