दिव्य विचार: जैसे संस्कार, वैसा ही चरित्र बनता है- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: जैसे संस्कार, वैसा ही चरित्र बनता है- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि हमारा जीवन विषमताओं से भरा है। जीवन में कहीं भी एकरूपता और स्थिरता परिलक्षित नहीं होती। कभी हर्ष-विषाद, कभी प्रसन्नता-खिन्नता, कभी खुशी-गम, कभी शान्ति-अशान्ति, कभी समता-विषमता, कभी सांमजस्य वैषम्य, कभी सुलझन-उलझन या अनेक प्रकार के आवेगों-संवेगों से हमारा चित्त डोलता रहता है। उसमें एकरूपता और स्थिरता दिखाई नहीं पड़ती है। इसका मूल कारण है, हमारे चित्त में / मन में उत्पन्न होने वाली भावनायें। इन भावनाओं में कभी श्री स्थिरता नहीं रहती। संत कहते हैं कि 'भावनाओं का हमारे जीवन से गहरा सम्बन्ध है।' हमारे चित्त में नित्य प्रति अनेक प्रकार की भावनायें उत्पन्न होती रहती हैं। और सच्चे अर्थों में जैसी भावना उत्पन्न होती है, वैसे ही संस्कार बनते हैं। जैसे संस्कार बनते हैं, वैसा ही हमारा चरित्र बनता है। वस्तुतः चरित्र कुछ और नहीं है, हमारे चित्त में उत्पन्न होने वाली स्थायी भावनाओं का समूह मात्र है। इसलिये मैं कहता हूँ- यदि तुम अपने जीवन को स्थिर बनाना चाहते हो, तो अपनी भावनाओं के शोधन के प्रति ध्यान रखो। यह सच है कि हमारी भावनाओं में उतार-चढ़ाव बने रहते हैं, इसमें एकरूपता नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम सारी जिंदगी इस उतार-चढ़ाव को झेलने के लिये ही अभिशप्त हैं। यदि भावनाओं के स्थायी परिवर्तन की कला सीख लें तो हम अपने जीवन को सम/स्थिर बना सकते हैं। बन्धुओ ! हमारे जीवन के साथ एक बहुत बड़ी विसंगति है कि हमारा जीवन सपाट मैदान की तरह नहीं है, हमारे जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव हैं। इसमें पर्वत-खाई, नदी-नाले, अनेक घुमाव हैं, जीवन पथ को उसके मध्य होकर आगे बढ़ना है। हमें ऐसे पथ से ही गुज़रना है, यह हमारे जीवन की मजबूरी है। अध्यात्मशास्त्र हमें इस विषय मार्ग पर समता से चलने की कला सिखाते हैं, यही जीने की सच्ची कला है। जो मनुष्य इसे आत्मसात् कर लेते हैं, उनका जीवन धन्य हो जाता है। उनके जीने का ढंग निराला होता है। संत कहते हैं 'अपने जीवन को समग्रता से पहचानो।