दिव्य विचार: अपने चित्त को दुर्भावनाओं से मुक्त करें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि जीवन के मूलघटक क्या हैं? और वे कैसे हैं ? हमारी संस्कृति में बहुत पहले से कहा गया - 'भावना भवनाशिनी'। भावना के बल पर ही संसार है और भावना के बल पर ही संसार से मुक्ति । 'एक भावना संसार वृद्धि करती है, तो एक भावना संसार को समेट देती है। एक भावना भवनाशिनी है तो दूसरी भावना भवविकासिनी बन जाती है। इस प्रकार हमारे चित्त में दो प्रकार की भावनायें आती हैं -
1. शुभ भावना और
2. अशुभ भावना।
शुभ भावना हमारे लिये अमृत बनकर हमारे संस्कार को, हमारे सुचरित्र को बनाती हैं, जबकि अशुभ भावनायें ज़हर बनकर संस्कारों को विकृत कर हमारे चरित्र को बिगाड़ डालती हैं। संत कहते हैं - 'भावनायें तो प्रत्येक मनुष्य के चित्त में अवतरित होती ही रहती हैं।' वे कभी नष्ट नहीं हो सकतीं। लेकिन उन भावनाओं का दिशा निर्धारण मनुष्य कर सकता है। मनुष्य अपने चित्त की दुर्भावनाओं से मुक्त होकर और सुभावना से प्रभावित होकर अपने चिन्तन को उज्ज्वल बनाकर अपना जीवन पवित्र बना सकता है। निषेधात्मक भावनायें रुग्ण मानसिकता को जन्म देती हैं। यह रुग्ण मानसिकता हमारी सोच को विकृत कर देती है, जबकि सकारात्मक सोच/ सद्भाव /सद्भावनायें हमारे चित्त को पवित्र बनाकर हमारे चिन्तन व चरित्र को निर्मल बनाने में सहायक बनती हैं। अतः हमें अशुभभावनाओं से बचकर, शुभ भावनाओं का प्रयास करना चाहिये। एक शुभ भावना स्वर्ग, मुक्ति का द्वार खोलती है, तो एक अशुभ भावना नरक ले जाने में सहायक बनती है। जैन आगमों में अनेक प्रकार की भावनाओं का वर्णन है। उनमें बारह भावनायें प्रसिद्ध हैं।