दिव्य विचार: त्याग का है बड़ा महत्व- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि पुराने जमाने की बात है। एक श्रेष्ठीपुत्र पिता की आज्ञा से व्यापार के लिए परदेश गया। पिता ने व्यापार के लिए आवश्यक हिदायतें दी और जाते समय उसे कुछ खाली पीपे देते हुए कहा- बेटे तू व्यापार के लिए जा रहा है, पैसे कमाएगा, रास्ते में समुद्री मार्ग आएगा कुछ परेशानियाँ, व्यवधान आ सकते हैं इन पीपों को अपने साथ रखना। सारे पीपे ऊपर से सील्ड पर अंदर से खाली थे। वह व्यापार के लिए गया, काफी पैसा कमाया, खूब धन संग्रह करके जब वह अपने घर लौट रहा था तो रास्ते में समुद्र में भँवर उठी, नाव का संतुलन बिगड़ने लगा। नाविक ने कहा कि नाव के भार को कम करो। युवक ने सोचा क्या करें? नाव को खाली करने की बात आई तो उसने जितने खाली पीपे थे सब फेंक दिए। भरे पीपे नाव में ही अपने पास रखे रहा। खाली पीपे फेंक दिए और भरे पीपे अपने पास ही रखने से नाव का भार बढ़ा और वह नाव डूब गई, उसका जीवन बर्बाद हो गया। काश उसने खाली पीपे रखे होते तो उनके माध्यम से वह समुद्र को पार भी कर सकता था। उसे इस रहस्य का पता बाद में चला कि खाली पीपे तो तैरते हैं और भरे पीपे डूब जाते हैं। काश! मैंने एक भी पीपा बचा रखा होता तो उसके सहारे इस पार से उस पार हो जाता। बंधुओं! मैं आपसे केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि संसार से पार उतरना चाहते हो तो खाली पीपा बनो, पीपे को खाली रखो, खाली होना जरूरी है और इसी खालीपन का नाम है आकिञ्चन्य। आज के चार शब्द हैं- खालीपन, खुलापन, भरापन और भारीपन । आकिञ्चन्य का मतलब है खाली हो जाना। खाली होने से अभिप्राय क्या है? जब सब कुछ त्याग दिया फिर उसके बाद बचा क्या? सर्वस्व त्यागने के बाद क्या बचा? निश्चित रूप से बाहर से त्यागने के बाद कुछ भी नहीं बचा लेकिन सब कुछ त्याग देने के बाद भी बहुत कुछ बचा रहता है।