दिव्य विचार: भ्रम टूटेगा तभी संवरेगा जीवन- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि धर्म का आधार रत्नत्रय है और रत्नत्रय का आधार सम्यग्दर्शन है। विगत दिनों सम्यग्दर्शन की भूमिका में चर्चा करते हुए मैंने चार बातें कही थी- भ्रम, मर्म, कर्म और धर्म। वस्तुतः हमारी जो धर्मयात्रा है वह भ्रम से यथार्थ की यात्रा है। हमारा जीवन अनादिकाल से भ्रमपूर्ण रहा है। हम मिथ्यादृष्टि कहें या भ्रमितदृष्टि कहें, इसमें कोई अन्तर नहीं है। जब तक हमारे जीवन का भ्रम नहीं टूटता, तब तक हम अपने जीवन को संवार नहीं सकते, सुधार नहीं सकते। जिसके जीवन का भ्रम टूट जाता है, उसके जीवन का रंग-ढंग बदल जाता है। रात में कोई सो रहा हो और सपने में देखता है। कि जिस मकान में वह सो रहा है, उस मकान में आग लग गई। आग की लपटें धीरे-धीरे बढ़ते हुए पूरे आकाश को छूने लगीं। आग उसके कक्ष तक पहुँच गई। परदे और दरवाजे जलने लगे। आँच उस व्यक्ति तक आ रही है और वह व्यक्ति एकाएक चीख उठता है। मैं सवाल पूछता हूँ कि उस आग को बुझाने में कितने पानी की आवश्यकता है? एक बूँद की भी नहीं। केवल उसे झकझोर कर जगा देने की जरूरत है। यदि हमने उसे जगा दिया, तो जागते ही आग बुझ जाएगी। मैं आपसे पूछता हूँ कि जगाने के बाद क्या उसकी चीख रहेगी? उसे व्याकुलता होगी? उसकी बेचैनी और व्यग्रता हमें देखने को मिलेगी क्या? सपना था, वह भ्रम था, यथार्थ नहीं था। जागते ही यथार्थ का बोध हो गया- अरे ! जिसके पीछे मैं रो रहा था, वह तो कुछ था ही नहीं। एक बहुत बड़ा सूत्र है- आपके पास कोई मूल्यवान् चीज हो और वह खो जाए तो आपके मन में यह भ्रम हो कि मैंने उसे घर में रखा था या नहाते समय बाथरूम में रखा था? पच्चीस चक्कर लगा लिए बाथरूम के, नालियों के अन्दर भी देख लिया, नहीं मिली। वह चीज नहीं मिली, आकुलता है। अचानक कोट की जेब में वह चीज मिल गई। अब क्या हुआ? चीज खोई थी या खोने का भ्रम था? जब तक चीज के खोने का भ्रम था तब तक आकुलता था, भ्रम टूटा आकुलता खत्म।