दिव्य विचार: भोग-विलास को त्यागें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि जीवन में बदलाव आए, संस्कृति का जो शरण हो रहा है उसे रोका जा सके, चेतना का विकास हो। बंधुओं, भोग विलास को त्यागें और चैतन्य- विलास से अनुराग हो तो हमारा जीवन धन्य होगा। चैतन्य के विलास से जीवन का है विकास है और भोग के विलास से जीवन का विनाश है इसलिए मन में विराम के पात्र आने चाहिए। अगर तुम्हारे अंतःकरण में वैराग्य हो तो दुनिया की कोई ताकत तुम्हें हिला नहीं सकती और जिस मनुष्य के मन में वैशम्य न हो वह जीवन में कभी टिक नहीं सकता। ये वैराग्य ही भेद विज्ञान को जन्म देता है और वैराग्य से ही भेद-विज्ञान पुष्ट होता है। वैराग्य जीवन के लिए बहुत जरुरी है। यह हमारी आध्यात्मिक सम्पदा है, इसे अपने भीतर जगाकर रखना चाहिए। विषयों के प्रति अनासक्ति का भाव, विषयों के प्रति हेयदृष्टि की वृद्धि, यही वैराग्य है। ये अच्छे-अच्छे लोगों के जीवन में भी नहीं दिखता। अच्छे-अच्छे बुजुगों के भी अंदर की भोगासक्ति मंद नहीं होती तो बड़ा आश्चर्य होता है कि लोग कहाँ जा रहे हैं। आचार्य श्री ने मूक माटी में बहुत अच्छी बात लिखी वासना का सम्बन्ध, न तन से, न वसन से, अपितु माया से प्रभावित मन से है। अपना मन अच्छा रखो, माया से मुक्त करके रखो तो हमारो जीवन धन्य होगा अन्यथा सब नष्ट हो जाएगा। शुकदेव जी आजन्म दिगम्बर थे ऐसा कहा जाता है। भागवत का प्रसंग है एक बार शुकदेव जी एक तालाब के पास से निकले। उस तालाब में कुछ युवतियाँ स्नान कर रही थीं, शुकदेव जी कब निकले उन्हें पता ही नहीं चला और स्त्रियाँ भी अपने स्नान में मग्न रहीं। थोड़ी देर बाद वहीं से व्यास जी निकले। व्यास जी जब उधर से गुजरे तो स्त्रियों ने अपने-अपने वस्त्रों से अपने अंगो को आच्छादित करना शुरु कर दिया, ढकने लगीं।