दिव्य विचार : उपलब्धि की श्रेय भगवान को दें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार : उपलब्धि की श्रेय भगवान को दें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि मैं तेरे दुःखों का निवारक नहीं हूँ, क्योंकि यदि मैं तेरे दुःखों का निवारक होऊँगा तो दुःखों का दाता भी मुझे ही बनना पड़ेगा। जैन सिद्धान्त कहता है कि ईश्वर भी हमारा कर्ता नहीं है। भगवान् को अपना कर्ता मानना सम्यक श्रद्धान है या अन्धश्रद्धा? बोलो ! सोचकर बोलो ! क्या है? महाराज ! आपने बोल तो दिया अन्धश्रद्धान, पर सारी स्तुतियों में तो यही लिखा है। आप पारसनाथ स्तोत्र में बोलते हो न कि" आपने दीनों को नाथ बना दिया, अन्धों को आँख दे दी, लंगड़े को पाँव दे दिया। क्या- क्या बोलते हो, मुझे तो याद भी नहीं है। अपुत्रीन को तू भले पुत्र कीने। भगवान् तो देते नहीं हैं, तो इस स्तुति को पढ़ने का नाम मिथ्यात्व हो गया? अन्धश्रद्धा हो गई? नहीं, जीवन में कुछ उपलब्धि हो और उसका श्रेय भगवान् को देना हमारी श्रद्धा है, पर जीवन में कुछ कमी हो और केवल भगवान् से याचना करना अन्धश्रद्धा है। क्या अन्तर है? जीवन में कोई उपलब्धि हो तो श्रेय हमेशा बड़ों को दिया जाता है, लेकिन कुछ भी कमी हो और कटोरा लेकर पहुँच जाना, यह अच्छी बात नहीं है। व्यवहार में ऐसा कहना पड़ता है कि सब आपकी कृपा से हुआ है, उससे हमारा अहंकार समाप्त होता है, धर्म से लगाव बढ़ता है, लेकिन हकीकत क्या है इसे कभी भूलना नहीं चाहिए। देखो ! भगवान् अकर्ता हैं। एक बार एक फिलोसॉफी की प्रोफेसर मेरे पास आई। उसने कहा- "महाराज जी ! मुझे जैनधर्म की, जैनदर्शन की सारी बातें अच्छी लगती हैं, पर एक बात समझ में नहीं आती कि आप लोग ईश्वर को तो मानते हैं, पर ईश्वर के कर्तृत्व को क्यों नहीं मानते? देखिए न ! ईश्वर ने हमारे ऊपर कितनी कृपा की है। मेरे पति की दोनों किडनियाँ खराब हो गई थीं, ईश्वर ने ठीक कर दीं। मैंने कहा- मैडम ! अगर ऐसी बात है तो मुझे आपके ईश्वर पर सन्देह है। उसने पूछा- क्या मतलब? मैंने कहा- मैडम ! अगर ईश्वर को किडनी ठीक ही करनी थी, तो खराब क्यों की? खराब भी तो उसी ने की है?