दिव्य विचार: आत्मदृष्टि ही सम्यग्दृष्टि है- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: आत्मदृष्टि ही सम्यग्दृष्टि है- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि आपने सड़क पर चलते हुए एक व्यक्ति का एक्सीडेन्ट देखा, सिर कुचल गया। बाइक आपके बेटे जैसी, कपड़े आपके बेटे जैसे, क्या फील करोगे? मेरा बेटा तो नहीं? रोना- धोना चालू हुआ या नहीं? ईमानदारी से बोलना ! बाइक के नम्बर नहीं दिख रहे हैं, पूरी तरह सिर कुचल गया, बेटे का चेहरा छिन्न-भिन्न है, वह स्पॉट पर ही मर चुका है, कपड़े भी वैसे, जूते भी वैसे ही, बेटा इसी रास्ते से गया था, बोलो ! क्या फील करोगे ? रोओगे या तटस्थ रहोगे? हाँ ! रोओगे, लेकिन इस रुदन के बीच कहीं से तुम्हारा बेटा आ जाए और कहे- पापा ! आप कहाँ? अरे बेटा! तू यहाँ? अब क्या होगा? समझ में आई बात ? भ्रम था कि वह मेरा बेटा है इसलिए दुःख हुआ। जहाँ भ्रम है, वहाँ दुःख है और जहाँ यथार्थ का बोध है, वहाँ सुख है। मैंने आपको चार प्रकार के भ्रम की बातें बताई थीं, आज उसी क्रम को आगे बढ़ाऊँगा और यह श्रृंखला लम्बी चलेगी। पहला भ्रम शरीर को आत्मरूप मानना। जब तक यह भ्रम रहेगा तब तक देहदृष्टि बनी रहेगी। जिसके अन्दर देहदृष्टि बनी रहेगी वह सारा जीवन तन के पोषण में बिताएगा, आकुलित बना रहेगा। जिसे शरीर व आत्मा की भिन्नता का बोध हो जाता है, भेदविज्ञान सम्पन्न हो जाता है, वह जानता है कि मैं देह में हूँ जरूर, पर मैं देह नहीं हूँ। देह में रहते हुए भी विदेह आत्मतत्त्व का श्रद्धान करता है। देह में देहातीत की अनुभूति करने का रास्ता अपनाता है। यह दशा केवल ज्ञानी के हृदय में प्रकट होती है। संसार के बहुतायत जीव "तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान' की परिणति में हैं। जब तक देहदृष्टि है, तब तक मिथ्यादृष्टि है। आत्मदृष्टि ही सम्यग्दृष्टि है। यह भ्रम टूटना चाहिए। 'देहे आत्मविभ्रान्तः बहिरात्मा।' जो शरीर में आत्मबुद्धि रखे हुए है, वह बहिरात्मा है। यह बहिरात्मपन छूटे, अन्तरात्मपने को उद्घाटित करें। अनादि के संस्कार कुछ ऐसे हैं जिनके कारण हमारी बुद्धि देह जगत से परे आत्मजगत् की ओर जाती है।