दिव्य विचार: श्रद्धा रखो, जीवन में भ्रम नहीं रहेगा- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि श्रम के निवारण के बाद मर्म का बोध होता है। मर्म को जाने बिना सच्चे धर्म को पाना सम्भव नहीं है। धर्म को अपनाए बिना शिवशर्म को पाना असम्भव है। जीवन के मर्म को पहचानने के लिए, मन के भ्रम को दूर भगाने के लिए हमें उनका सम्पर्क, सान्निध्य, शरण आवश्यक है, जिन्होंने भ्रम को तोड़कर यथार्थ को पाया है, उसका अनुभव किया है। यथार्थ को उपलब्ध, यथार्थपोषक आदर्शों की शरण से ही हम अपने भ्रम को तोड़ सकते हैं। विगत दिनों इस बात की चर्चा मैंने आप सबसे की है और कहा है कि यथार्थ को पाना चाहते हो, अपने भ्रम को तोड़ना चाहते हो तो पहले उन पर श्रद्धा करो जिनके जीवन में कोई भ्रम नहीं है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा से हमारे धर्म की शुरुआत होती है। इस सन्दर्भ में मैंने पिछले दिनों कुछ बातें आप सबसे की थीं। श्रद्धा हमारे जीवन में होनी चाहिए, पर केवल सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा ही नहीं अपितु उसका कुछ प्रभाव भी होना चाहिए। जिनके हृदय में सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के प्रति सच्ची श्रद्धा प्रकट हो जाती है, उनके जीवन में कुछ विलक्षणताएँ घटित होती हैं जो उनके जीवन में वैशिष्ट्य प्रकट करती हैं, उनके जीवन को सामान्य से विशिष्ट बना देती हैं, उनके जीवन को साधारण से असाधारण बना देती हैं। वह आम से खास हो जाता है, कच्चे से पक्का बन जाता है। वह जिसे हम सम्यग्दर्शन के अंगों के रूप में जानते हैं, कहते हैं। आज मैं बात शुरु कर रहा हूँ सम्यक्त्व के अंगों की, जिसमें सबसे पहला अंग है निःशंकित अंग। इसका सामान्य अर्थ होता है मन में शंका न होना। अगर तुम्हारे हृदय में धर्म की श्रद्धा हो गई तो शंका हो ही नहीं सकती और जहाँ शंका है, वहाँ श्रद्धा हो नहीं सकती। आज चार बातें मैं आप सबसे करूँगा- शंका, श्रद्धा, भय और अभय ।