दिव्य विचार: सुख-दुख चलते रहते हैं- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि जब हमारी आत्मा ऊर्जा बन जाती है, तो हमें कुछ ज्यादा सोचने-समझने की ज़रूरत नहीं होती। आयुर्वेद एवं होम्योपैथी में भावनाओं का बड़ा महत्त्व है। आयुर्वेद की बहुत सारी औषधियाँ ऐसी हैं, जिनमें भावनायें ही दी जाती हैं। होम्योपैथी का सारा काम 'पोटेंसी' पर निर्भर करता है। मुझे एक होम्योपैथी चिकित्सक ने बताया कि - 'महाराज ! मैं आपको एक सामान्य शक्कर की गोली और एक होम्योपैथी मेडिसन की गोली दूँ तो आप क्या, दुनिया की कोई भी 'लेब' यह पता नहीं चला सकती कि कौन-सी सामान्य गोली है, और कौन-सी दवाई वाली। हमारे यहाँ तो जो भी अल्कोहल के माध्यम से 'पोटेंसियेट' किया जाता है, उसमें अल्कोहल तो उड़ जाता है। हमारी सारी चिकित्सा 'पोटेंसी' पर निर्भर करती है। जितनी अधिक पोटेंसी होगी वह दवा उतनी अधिक प्रभावी होगी। जैसे भावनाओं के प्रभाव से औषधि में गुणवत्ता बढ़ती है, वैसे ही भावनाओं के प्रभाव से हमारी आत्मा की क्षमतायें भी विकसित होती हैं।' आज हम इन्हीं भावनाओं में से पहली भावना अनित्यभावना की चर्चा करेंगे। अनित्यभावना का मतलब है, जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है वह सब विनाशीक है। जिसका जन्म हुआ है, उसका मरण सुनिश्चित है। जो आया है वह जायेगा, जो मिला है वह बिछुड़ेगा, जो बना है वह बिगड़ेगा। सच्चे अर्थ में मृत्यु-जन्म के लिये, आना-जाने के लिये, ऊगना-डूबने के लिये, मिलना बिछुड़ने के लिये है। जब जन्म होता है, तो हम हर्ष मनाते हैं और जब मरने लगता है, तो मातम छा जाता है। जन्म में जश्न, मृत्यु में मातम - यह हमारे मन की दुर्बलता है। किसी के आगमन पर हर्ष और किसी के जाने में कष्ट। कोई आता है, तो हम उसकी आगवानी करते हैं. हमें हर्ष होता है, किन्तु उसके जाने से हमें विदाई का, विछोह का गम सताने लगता है। इस प्रकार आगमन पर प्रसन्नता एवं विदाई में खिन्न हुये बिना नहीं रह सकते । इस तरह आना-जाना, मिलना-बिछुड़ना, सुख-दुःख चलते रहते हैं, ये सब प्रकृति के नियम हैं, उत्पत्ति और विनाश तो सृष्टि का क्रम है।