दिव्य विचार: अपनी स्थिति से संतुष्ट रहो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: अपनी स्थिति से संतुष्ट रहो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि स्वागत करो। सबका स्वागत करो। मन में खेद खिन्नता आएगी ही नहीं। यही तपस्या है। सन्त कहते हैं जो मनुष्य अपनी स्थिति से सन्तुष्ट नहीं वह कभी सुखी नहीं हो सकता और जो अपनी स्थिति से संतुष्ट है वह कभी दुःखी नहीं हो सकता। कोई भी समस्या शेष नहीं रहेगी। समाधान ही समाधान है। ये तपस्या है। व्रत-उपवास कर लेना सहज है पर ऐसे समय में अपने मन को समाधान देना बहुत कठिन है। यदि तुमने ऐसा कर लिया तो सब हो गया। तपस्या उसे कहते हैं जिससे कर्म की निर्जरा हो। तपस्या को कर्म की निर्जरा का साधन कहा।

तपसा कम्मं णिरज्जइ।

तपस्या से कर्म झड़ता है। आपने कभी कर्म को झड़ते हुए देखा? बोलो ! उपवास करने वालों ! कितने कर्म झड़ाए? निश्चित कर्म झड़ते हैं। लेकिन कर्म झड़े इसकी पहचान क्या? मेरी भावदशा में अन्तर। जब भी कोई अशुभ संयोग आए सोचो मेरी कर्मनिर्जरा का समय आ गया। समता भाव रखूँगा तो कर्म झड़ जाएँगे, ये परिस्थितियाँ अपने आप बदल जाएँगी। मेरी मनःस्थिति शान्त हो जाएगी जीवन धन्य हो जाएगा। कर्म निर्जरा हो गई। समता से कर्मों की निर्जरा होती है। और जिससे निर्जरा होती है उसी का नाम तपस्या है। समस्या का निवारण किसमें है? तपस्या में है। आज से समस्या की बात करोगे कि तपस्या की बात करोगे? आज से तपस्या करना शुरु कर दो। कोई भी प्रतिकूल प्रसंग आएगा उसको समता से मैं सहूँगा। जीवन में कैसी भी विषमता आए समता से स्वीकार करो। जो तत्त्वज्ञानी होता है वह सहज भाव से स्वीकार कर लेता है। कितने भी उतार- चढ़ाव आ जाएँ लेकिन विचलित नहीं होता। देखो! धर्मात्माओं के जीवन में कैसी भी विपत्ति आई लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। हम जहाँ हैं वहीं रहेंगे, हटेंगे नहीं ये धर्मात्मा की पहचान है। बात आप समझ रहे हैं तो अपने जीवन में कितना भी बड़ा झंझावात आ जाए कभी हिलना नही, घबराना नहीं।