दिव्य विचार: बाहर के साधन सुविधा दे सकते हैं सुख नहीं- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि अध्यात्ममूलक दृष्टि तुम्हारे भीतर विरक्ति का संस्कार जगाती है। जिस मनुष्य के अंतर्मन में विरक्ति के संस्कार जाग जाते हैं वह कभी गलत रास्ते पर नहीं चलता। दृष्टि में अध्यात्म लाओ। अध्यात्मदृष्टि कहती है कि आत्मा का सुख तुम्हारे भीतर है बाहर नहीं। बाहर के साधन तुम्हें सुविधा दे सकते हैं सुख नहीं। ध्यान रखना सुविधाएँ, साधनों से जुटाई जा सकती हैं लेकिन सुख तो भीतर से ही अर्जित होता है जो अन्तःकरण की तृप्ति से प्रकट होता है। ऐसी तृप्ति इच्छाओं के नियंत्रण में होती है। पाँच इन्द्रियों के विषयों को रोको। इन्हें दुखदायी समझो। जिस मनुष्य के भीतर आध्यात्मिक दृष्टि जाग जाती है वह इस बात को समझता है कि ये एक मृगमरीचिका है। मृगमरीचिका क्या होती है? रेगिस्तान में रेत के कणों पर सूर्य की किरणें जब पड़ती हैं तो रिफ्लेक्शन (चमक) आता है और दूर से ऐसा लगता है कि कोई सरोवर लहलहा रहा है। वहाँ रहने वाला मृग (हिरण) जिसे प्यास लगती है वह सोचता है कि थोड़ी ही दूरी पर सरोवर है। मैं वहाँ पहुँचूँगा और जीभर पानी पीकर अपनी प्यास बुझा लूँगा। बस दस-बीस कदम और, दस-बीस कदम और। दस-बीस कदम सोचते-सोचते हिरण जितना दौड़ता जाता है सरोवर उससे उतना ही दूर होता जाता है। बंधुओं! इस सच्चाई को समझने की कोशिश कीजिए। तुम्हारे मन में जब कभी किसी भी चीज के विषय में बात आती है तो बस थोड़ा सा और, थोड़ा सा और, थोड़ा सा और उस और-और-और का अंतिम छोर कहीं नहीं होता। बस और है छोर नहीं। आज तक का अनुभव है यदि तुम भागते रहोगे तो अपने प्राण गंवा दोगे। संत कहते हैं जिसे तुम तृप्ति का आधार मानकर चल रहे हो वह तो अतृप्ति का केन्द्र है। उससे तृप्ति कभी नहीं मिलने वाली ।